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________________ ३०० कर्ण को समझाना : १७ श्री कृष्ण ने कर्ण से कहा " – कर्ण ! तुम गुणों के आकर हो । इस पृथ्वी पर एक से एक बढ़कर वीर हैं पर तुम्हारे सदृश वीर कोई नहीं है । पर्वत तो अनेक हैं, पर सुमेरु तो एक ही है । जैसे बहुमूल्य हीरा सोने की अंगूठी में ही शोभा देता है पीतल की अंगूठी में नहीं, वैसे ही कर्ण, तुम पाण्डवों के साथ शोभा देते हो, कौरवों के साथ नहीं । दुर्योधन का साथ देने से तुम कुलक्षय के कारण बनोगे ! मेरी समझ से ऐसे दुष्ट व्यक्ति के साथ तुम्हें मित्रता नहीं करनी चाहिए थी । तुमने यह भूल की है । कोई व्यक्ति सर्प का चाहे कितना भी पोषण करे पर सर्प पोषण करने वाले को ही काटता है । वैसे दुराचारी मित्र भी उपकार करने वाले मित्र को ही कष्ट देता है । यदि पिता दुरात्मा है, तो पुत्र का कर्तव्य है कि ऐसे पिता को छोड़ दे, जैसे राहु से ग्रसित होने पर किरणें सूर्य का त्याग कर देती हैं । भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण जब नदी अमर्यादित होकर बहती है तब वह अपने किनारे पर शोभा बढ़ाने वाले वृक्षों को ही नष्ट कर देती है । वैसे ही दुराचारी भी अपने रक्षकों को नष्ट कर देते हैं । दुर्जन की संगति कृष्ण पक्ष के चाँद की तरह है । कृष्ण पक्ष की संगति करने से चन्द्र किरणें घटने लगती हैं, उसका प्रकाश मन्द होने लगता है । यहाँ तक कि एक दिन उसका प्रकाश पूर्ण रूप से लुप्त हो जाता है, किन्तु सज्जन की संगति शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की तरह है, जो प्रतिदिन उसके प्रकाश की अभिवृद्धि करता है और एक दिन उसे पूर्ण प्रकाशित कर देता है । १७. श्री पाण्डव चरित्र - देवप्रभसूरि सर्ग - ११ महाभारत में भी प्रस्तुत कथानक कुछ शब्दों के हेरफेर के साथ चित्रित किया है, पर भाव यही है । सोऽसि कर्ण तथाजातः पाण्डोः पुत्रोऽसि धर्मतः । निग्रहाद्धर्मशास्त्राणमेहि राजा भविष्यसि । पितृपक्षे च ते पार्था मातृपक्षे च वृष्णयः । द्वौ पक्षावभिजानीहि त्वमेतौ पुरुषर्षभ || Jain Education International महाभारत - उद्योग० अ० १४०, श्लोक ६-१० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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