________________
२६६
भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण
बांधने का विचार कर वह पुनः सभा भवन में आकर बैठा । सत्यकी के द्वारा संकेत पाकर श्रीकृष्ण को सारा रहस्य ज्ञात हो गया । उन्होंने अपने नेत्र लाल करते हुए कहा- 'क्या कभी शृगालों ने सिंह को बांधा है ? तुम मुझे बंधन में बांधना चाहते हो, तुम लोग वस्तुतः दुरात्मा हो । उपकार करने वाले का भी अपकार करना चाहते हो !' इतना कहकर वे उठ खड़े हुए। "
कृष्ण का पुण्य प्रकोप :
I
श्रीकृष्ण के पुण्य - प्रकोप को देखकर भीष्मपितामह आदि भी घबरा गये । दुर्योधन की मूर्खता का वे मन ही मन विचार करने लगे । श्रीकृष्ण को शान्त करने के लिए वे भी उनके पीछे-पीछे चले । भीष्म पितामह ने वाणी में मिश्री घोलते हुए कहा - कृष्ण ! विद्य त्से तपा हुआ मेघ जैसे शीतल पानी की ही वृष्टि करता है वैसे ही दुष्टों के द्वारा सन्ताप देने पर भी महान पुरुष क्रोध नहीं करते । जैसे शृगाल के शब्द और नृत्य को देखकर सिंह कभी खेद को प्राप्त नहीं होता, वैसे ही दुष्ट व्यक्तियों के भाषण से महान् आत्माएं खिन्न नहीं होतीं । एतदर्थं दुर्योधन के दुर्व्यवहार पर तुम क्रोध न करना । किसी भी समय चाँद आग नहीं उगलता, वैसे ही तुम भी आग न उगलना । मैं समझता हूं तुम अकेले ही युद्ध-क्ष ेत्र में कौरव दल का संहार करने में समर्थ हो । कितना भी मदोन्मत्त हाथी क्यों न हो, वह सिंह के सामने टिक नहीं सकता, वैसे ही तुम्हारे सामने कौरव टिक नहीं सकते । पर यह जो युद्ध होने जा रहा है वह कौरवों और पाण्डवों के बीच में है । यह भाइयों का युद्ध है । अतः मैं चाहता हूँ कि कृष्ण ! तुम इस युद्ध में भाग न लो । पाण्डव स्वयं ही युद्ध करने में समर्थ हैं। मुझे विश्वास है कि तुम मेरी बात मानोगे |
सारथी बनूंगा :
भीष्म पितामह की बात सुनकर श्रीकृष्ण एक क्षण विचार कर बोले - पितामह ! आपकी बात मुझे माननी ही चाहिए किन्तु निवेदन है कि इस समय पाण्डव मेरे आश्रित हैं, और वे मेरे
८. पाण्डव चरित्र – देवप्रभ पू० ३४७-४८ |
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org