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________________ २६५ महाभारत का युद्ध लोगे तो भी इसमें कुछ कल्याण नहीं है, क्योंकि बिना स्वजनों के सम्पत्ति किस काम की ? यह निश्चित है कि युद्ध में पाण्डव पराजित होने वाले नहीं हैं तथापि तुम्हारे द्वारा किया गया कुलसंहार वीरता का प्रतीक नहीं होगा । पाण्डव एक-एक से बढ़कर वीर हैं । शत्रुओं के समुदाय को नष्ट करने में साक्षात् यम के समान हैं । अतः तुम्हारे लिए यही श्रेयस्कर है कि तुम पाण्डवों से सन्धि करलो । दुर्योधन ! तुम्हें पाण्डवों के समान वीर भाई कहां मिलने वाले हैं ? मिथ्या अहंकार को छोड़ो और युद्ध के अनिष्ट भीषरण फल का विचार करो । पाँच पांडवों के लिए पाँच गाँव दे दोगे तो भी मैं उन्हें सन्तुष्ट करने का प्रयत्न करूंगा - भीम के लिए कुशस्थल, अर्जुन के लिए वृषस्थल, नकुल के लिए मांकदी, सहदेव के लिए वारुणावतार और धर्मराज के लिए इनके अतिरिक्त उनके योग्य कोई भी गाँव देदो । इतना अल्प देने पर भी पाण्डव मेरे कहने से सन्धि कर लेंगे । साधु प्रकृति के व्यक्ति कुल क्षय को देखकर अल्प वस्तु में भी सन्तोष करते हैं । यदि इतना भी तुम स्वीकार न करोगे तो पाण्डव तुम्हारे कुल को नष्ट कर देंगे । -- इतना वक्तव्य देने के पश्चात् श्रीकृष्ण शान्त हुए । तब कर्ण की ओर देखकर दुर्योधन ने कहा- 'पाण्डवों को कुछ भी नहीं देना है ।' फिर दुर्योधन श्रीकृष्ण की ओर मुड़ा और बोला – अय कृष्ण ! तुम जितना बल पाण्डवों में मानते हो उतना बल उनमें नहीं है मैंने आज तक उनको जीवन-दान दिया है, किन्तु वे अपनी शक्ति के अभिमान में आकर एक भी गाँव को लेने की बात करेंगे तो गाँव की बात तो दूर रही पर उनके प्रारण भी नहीं बच पायेंगे । पाण्डव अपना बाहुबल ही देखना चाहते हैं तो तुम्हारे साथ वे जल्दी से जल्दी कुरुक्षेत्र के मैदान में आयें। वहाँ उन्हें युद्ध का चमत्कार दिखलाया : जायगा । इतना कहकर दुर्योधन कर्ण के साथ सभा के बाहर गया । करण से कहा - श्रीकृष्ण को इसी समय बंधन-बद्ध कर लिया जाय जिससे शत्रु 3 ओं का बल कम हो जायेगा | श्रीकृष्ण को बंधन में ६. पाण्डव चरित्र – देवप्रभसूरि अनुवाद पृ० ३४६ । ७. पाण्डवचरित्र - देवप्रभसूरि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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