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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण
चिंतन-मनन के पश्चात् कही हैं । पर वे भूल गये हैं । उन्होंने यह नहीं बताया कि अन्याय का प्रतीकार कैसे करना चाहिए ? एक ओर से शांति धारण की जाय और दूसरी ओर से अन्याय-अत्याचार का क्रम चालू ही रहे, यह कहां का न्याय है ?"
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कृष्ण का शान्ति दूत बनकर जाना :
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दूत चला गया | श्रीकृष्ण के अन्तर्मानस में शान्ति नहीं थी । उनका विचार-मंथन चल रहा था । वे चाहते थे कि किसी प्रकार कौरव और पाण्डवों में युद्ध न हो । वे आपस में ही समझ जायें, अतएव उन्होंने अन्त में यही निश्चय किया कि मुझे स्वयं जाकर एकबार दुर्योधन को समझाना चाहिए ! अपने कुछ अंग रक्षकों को लेकर श्रीकृष्ण द्वारिका से सीधे हस्तिनापुर आये । दुर्योधन ने श्रीकृष्ण का स्वागत किया। उन्हें राजमहल में ले गया । रत्नसिंहासन पर बैठाया। उनके आसपास धृतराष्ट्र, दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन, आदि बैठ गये । धृतराष्ट्र के पूछने पर श्रीकृष्ण ने कहाआपकी ओर से संजय दूत बनकर द्वारिका आया था। मेरा ऐसा अनुमान है कि वह धर्मराज के सामने संधि का प्रस्ताव रखना चाहता था, पर वह रख न सका । यदि वह रखता भी तो पांडव उसे स्वीकार नहीं करते । वह यद्ध के प्रस्ताव को लेकर हस्तिनापुर लौट आया । उसके पश्चात् धर्मराज ने मुझे सारी बात बताई । मुझे लगा कि युद्ध होने पर तुम्हारे कुल का प्रलय हो जायेगा, एतदर्थ मैं पाण्डवों से पूछे बिना ही स्वेच्छा से दूत- कार्य करने के लिए यहां आया हूँ । यदि तुम्हें मेरे प्रति विश्वास हो, तुम मुझे अपना परम हितैषी समझते हो तो मेरी बात को ध्यान से सुनो। दुर्योधन ! यदि तुम पाण्डवों को राज्य का थोड़ा-सा भी भाग नहीं दोगे तो पाण्डव तुम्हारे प्राणों का अपहरण करके भी सम्पूर्ण राज्य ले लेंगे । कदाचित् तुम पाण्डवों को पराजित कर सम्पूर्ण पृथ्वी का भी राज्य प्राप्तकर
५. महाभारत में भी संजय को युधिष्ठिर स्पष्ट सुनाते हैं, संजय के द्वारा सन्धि के प्रस्ताव पर वे स्पष्ट कहते हैं कि मैं संधि करने को तैयार हूँ यदि दुर्योधन मेरा इन्द्रप्रस्थ का राज्य दे दे तो
देखो उद्योग पर्व, अ० २६, श्लो० १ - २६ तक
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