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________________ ३६१ महाभारत का युद्ध दुःशासन आदि वीरों के साथ बैठा हुआ था । दूत ने नमस्कार कर कहा - श्रीकृष्ण ने अत्यन्त स्नेह से निम्न समाचार आपको कहने के लिए मुझे यहां पर भेजा है - " आप लोगों के समक्ष युधिष्ठिर ने बारह वर्ष का वनवास और तेरहवें का अज्ञातवास स्वीकार किया था । अवधिपूर्ण होने पर अब वे प्रकट हुए हैं । विराट् राजा ने अपनी लड़की उत्तरा का पाणिग्रहण अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु के साथ किया । उस अवसर पर मैं वहां पर गया । मैंने अनुभव किया कि पाण्डवों का तुम्हारे प्रति गहरा अनुराग है । वे तुम्हारे विरह से व्यथित हैं किन्तु तुम लोगों को किसी भी प्रकार का कष्ट अनुभव न हो, एतदर्थं वे सीधे हस्तिनापुर नहीं आये। अब धर्मराज की सत्यप्रतिज्ञा पूर्ण हो चुकी है । वे मेरे साथ द्वारिका आये हैं, अतः दुर्योधन ! मेरा नम्र अनुरोध है कि तुम अपने भाइयों को स्नेह से हस्तिनापुर बुलालो । मैं नहीं चाहता कि भाइयों में बिना कारण विरोध रहे । सम्पत्ति और अधिकार के कारण भाइयों में वैमनस्य होना उचित नहीं है । यदि तुम न भी बुलाओगे तो भी धर्मराज के लघुभ्राता उनको हस्तिनापुर लाएंगे और अपनी भुजा के सामर्थ्य से तुम्हारे भाग की भी भूमि को प्राप्त करेंगे । संभव है, युद्ध के मैदान में तुम्हारी भी मृत्यु हो जाय, या तुम्हें भी पाण्डवों की तरह एक जंगल से दूसरे जंगल में भटकना पड़े । अतः ऐसी स्थिति आने से पूर्व ही विवेक से कार्य किया जाय जिससे पश्चात्ताप न करना पड़े । यदि तुम यह समझते हो कि पाण्डव असहाय हैं तो यह भ्रम है। जहां धर्म है वहां विजय निश्चित है, अतः मेरी बात पर गहराई से चिन्तन करना ।" दूत के सन्देश को सुनकर दुर्योधन अपने आपे से बाहर होगया । उसने कहा - "दूत ! तुम्हारी वाणी तो बैर के समान है - प्रारम्भ में मधुर, अन्त में कठोर । मैं नहीं समझता कि मेरे प्रबल पराक्रम के सामने कृष्ण का क्या सामर्थ्य है ? और पाण्डव किस बाग की मूली हैं ? सूर्य के चमचमाते प्रकाश के सामने चाँद और अन्य ग्रह निःसत्व हैं, वैसे ही मेरे सामने कृष्ण और पाण्डव हैं। लोग कहते हैं कि युद्ध भूमि में श्रीकृष्ण सिंह की तरह जूझते हैं पर मेरे तीक्ष्ण बाणों से विधकर वे शृगालवत् हो जायेंगे। मेरे बाणों से वे इस प्रकार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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