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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण घायल हो जायेंगे कि पक्षिगण और कुत्ते उनको नोंच-नोंचकर खा जाएंगे।"
दूत ने दुर्योधन की बात को बीच में ही काटते हुए कहा"दुर्योधन ! तू निरर्थक मिथ्या अहंकार कर रहा है । तू कृष्ण रूपी सूर्य के सामने जुगन की तरह है। क्या तुझे श्रीकृष्ण के सामर्थ्य का पता नहीं है, जिसने अरिष्टासूर, केशी, चाणर और कंस आदि अनेक महान् योद्धाओं को समाप्त किया है ? कृष्ण की तो बात ही जाने दो, क्या पाण्डव भी वीरता में कम हैं ? अरे ! धर्मराज तो धर्म के साक्षात् अवतार हैं। भीम का महान् बल किससे अज्ञात है जिसने अपने बाहुबल से हेडंब किर्मीर, बक, और कीचकादि अनेकों का हनन किया है ? वीर अजुन का तो कहना ही क्या है, जिसने तेरी पत्नी भानुमती को रोती-चिल्लाती देखकर युधिष्ठिर की आज्ञा से तुझे चित्रांगद विद्याधर के शिकंजे से मुक्त किया था। जिस समय तू विराट राजा की गायों को चुरा रहा था उस समय उसने तेरे वस्त्र, और अस्त्र छीन लिये थे। उस समय बता तेरा अतुल बल कहां गया था ? स्मरण रखना, नकुल और सहदेव भी कम बलवान् नहीं हैं।"
दुर्योधन का धैर्य ध्वस्त होगया। वह चिल्ला उठा-"अरे दूत ! अवध्य होने से मैं तुझे छोड़ देता हूँ। नहीं तो यह तलवार तेरे टुकड़े-टुकड़े कर देती। मैं चुनौती देता है कि पाण्डवों में और श्रीकृष्ण में यदि शक्ति है तो वे अपनी शक्ति कुरुक्षेत्र के मैदान में बताए । मैं उनके साथ युद्ध करने को प्रस्तुत हैं।"
दूत ने लौटकर श्रीकृष्ण से निवेदन किया--"भगवन् ! जंगल में भयंकर आग लगी हो, सारा वन प्रान्त उस आग से धू-धूकर सुलग रहा हो तो क्या एक घड़ा पानी उस विराट् आग को बुझा सकता है ? नहीं ! वैसे ही दुर्योधन को आपका मधुर उपदेश निरर्थक लगा, क्योंकि सभी राजा और अभिभावकों ने उसकी आज्ञा शिरोधार्य कर रखी है। उसने उनको अपने वश में कर रखा है। इस कारण वह आपको तथा पाण्डवों को तृण-तुल्य मानता है। वे राजा भी आंख मूदकर उसके लिए प्राण देने को तैयार हैं। मुझे आश्चर्य तो इस बात का है कि भीष्मपितामह जैसे महान् व्यक्ति भी यह न कह सके कि पाण्डवों को उनके अधिकार की भूमि देनी चाहिए। यद्यपि
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