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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण
___ सही बात बतलाते हुए पाण्डवों ने कहा -- 'हमने गंगा महानदी को एक छोटी नौका के सहारे पार किया है । आपके सामर्थ्य को देखने के लिए ही उस नौका को छिपा दिया और आपकी राह देखते रहे । २२
यह सुनते ही कृष्ण ने लाल नेत्र करते हुए कहा - जब मैंने दो लाख योजन विस्तृत लवण समुद्र को पारकर, पद्मनाभ को मथित किया, उसकी सेना को भगा दिया। अमरकंका को ध्वस्तकर द्रौपदी को अपने हाथों से प्राप्त किया, तब तुम लोगों ने मेरे पराक्रम के माहात्म्य को नहीं देखा ? अब मेरा माहात्म्य देखोगे ? ऐसा कहकर लोहदण्ड से पाण्डवों के रथों को उन्होंने चूर-चूर कर दिया और उसी समय पाण्डवों को निर्वासन की आज्ञा दे दी। वहाँ पर रथ-मर्दन नामक कोट बस गया ।२3
तत्पश्चात् श्रीकृष्ण अपने स्कंधावार में पहुँचे, और अपनी सेना से मिलकर आनन्दपूर्वक द्वारिका लौटे ।२४ पाण्डु मथुरा की स्थापना :
निर्वासन की आज्ञा के पश्चात् पाण्डव हस्तिनापुर पहुँचे, पर उनके चेहरे पर प्रसन्नता का अभाव था। सभी के चेहरे मुरझाए हुए थे। वहाँ पहुँचने पर उन्होंने सारी बातें पाण्डुराजा से निवेदन की। पाण्डुराजा ने कहा-पुत्रों! 'तुमने श्रीकृष्ण वासुदेव का अप्रिय कर बहुत बुरा किया है।'
उसके बाद पाण्डुराजा ने कुन्ती देवी को बुलाकर कहा-तुम द्वारवती नगरी जाओ और श्रीकृष्ण वासुदेव से प्रार्थना करो कि
२२. (क) त्रिषष्टि ० ८।१०।८५
(ख) ज्ञातासूत्र अ० १६ २३. कृष्णोऽप्युवाच कुपितो मदोजो ज्ञास्यथाधुना।
न ज्ञातमब्धितरणेऽमरकंकाजयेऽपि च ।। इत्युक्त्वा लोहदंडेन रथांस्तेषां ममर्द सः । अभूच्च पत्तनं तत्र नामतो रथमर्दनम् ।।
__ --त्रिषष्टि० ८।१०।८६-८७ २४. त्रिषष्टि० ८।१०८
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