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द्रौपदी का स्वयंवर और अपहरण
२७५ पाण्डुराज जब किसी भी प्रकार द्रौपदी का पता न लगा सके, तब उन्होंने कुन्ती देवी को बुलाया और कहा-हे देवानुप्रिये ! तुम शीघ्र ही द्वारवती नगरी जाओ, और कृष्ण वासुदेव से स्वयं द्रौपदी की गवेषणा करने के लिए अभ्यर्थना करो।"
कुन्ती देवी श्रेष्ठ हस्ती पर आरूढ होकर जहाँ सौराष्ट्र जनपद था, जहाँ द्वारवती नगरी थी, जहाँ श्रेष्ठ उद्यान था, वहाँ पहुँची । वहाँ हाथी से नीचे उतर कर कौटाम्बिक पूरुषों को बुलाकर बोलीदेवानुप्रियो ! तुम द्वारवती नगरी में प्रवेश करो और श्रीकृष्ण वासुदेव से हाथ जोड़कर कहो-स्वामी ! आपके पिता की बहनबुआ कुन्ती देवी हस्तिनापुर से शीघ्र ही यहाँ आयी है और आपका दर्शन करना चाहती है।११।
कौटुम्बिक पुरुषों से कुन्ती देवी के आगमन की बात सुनकर वासुदेव श्रीकृष्ण श्रेष्ठ हस्ती पर आरूढ़ हुए, और सेना लेकर द्वारवती के मध्य में होकर जहाँ पर कुन्तीदेवी थीं वहाँ पर आये । उन्होंने हाथी से उतरकर कुन्ती के चरण ग्रहण किये, फिर कुन्तीदेवी के साथ हाथी पर आरूढ़ हो अपने राजभवन आये । ___भोजन के पश्चात् कुन्ती देवी से श्रीकृष्ण ने उनके आने का कारण पूछा । कुन्ती बोली-'पुत्र युधिष्ठिर द्रौपदीदेवी के साथ सुखपूर्वक सो रहा था। जागने पर द्रोपदी दिखलाई नहीं दी। न मालूम किस देव, दानव, किपुरुष, किन्नर या गन्धर्व ने उसका अपहरण किया है। पुत्र ! मेरी यही अन्तरेच्छा है कि तुम स्वयं द्रौपदी देवी की मार्गणागवेषणा करो। अन्यथा उसका पता लगना असम्भव है।"
यह सुन कृष्ण बोले-आप चिन्ता न करें। मैं द्रौपदीदेवी का पता लगाऊँगा। उसकी श्रुति, क्षुति, प्रवृत्ति का पता लगते ही पाताल से, भवन से, अद्ध भारत के किसी भी स्थल से उसे स्वयं अपने हाथों से ले आऊँगा । इस प्रकार कृष्ण वासुदेव ने कुन्ती देवी को आश्वासन दिया, उनका सत्कार-सन्मान किया और यथासमय उन्हें विदा किया।
उसके पश्चात् कृष्ण ने कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाया और आदेश देते हुए कहा-देवानुप्रियो ! तुम शीघ्र ही द्वारवती नगरी के छोटे
११. ज्ञातासूत्र १६ के आधार से
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