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भंगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण बात ज्ञात नहीं थी। अर्जुन ने माता गांधारी से कहा-माता ! मैं एक वस्तु लेकर आया हूँ । माता गांधारी ने सहज रूप से कह दिया अच्छा, तुम पाँचों भाई बाँट कर लेलो । माता की आज्ञा का पालन करने के लिए पाँचों भाइयों के साथ द्रौपदी का पाणिग्रहण हुआ। द्रौपदी का अपहरण :
एक दिन पाण्डुराज पाँच पाण्डवों, कुन्ती देवी, द्रौपदी देवी और अन्तःपुर के अन्य परिजनों से संवृत सिंहासनासीन थे। उस समय कच्छुल्ल नारद जो बाहर से भद्र व विनीत प्रकृति के लगते थे, पर अन्तरंग से कलुषितहृदय वाले थे, घूमते-घामते हस्तिनापुर नगर में आये और शीघ्र गति से पाण्डुराज के भवन में प्रविष्ट हुए।
नारद ऋषि को आते देख कर पाण्डु राजा ने पाँच पाण्डवों व कुन्ती देवी सहित आसन से उठकर, सात-आठ कदम सन्मुख जाकर तीन बार आदक्षिणा-प्रदक्षिणा कर वन्दन व नमस्कार किया, और योग्य आसन पर बैठने के लिए आमंत्रित किया।
नारदऋषि ने आसन भूमि पर पानी के छींटे दिये, दर्भ बिछाया, उस पर आसन डाला तथा शान्ति से बैठे। उन्होंने पाण्डराज से राज्य के सम्बन्ध में तथा अन्य अनेक समाचार पूछे।
पाण्डुराज, कुन्ती देवी, और पाँच पाण्डवों ने नारद ऋषि का सत्कार-सन्मान किया पर द्रौपदी ने नारद को असंयत, अविरत, अप्रतिहत प्रत्याख्यात-पापको जानकर उनका आदर-सत्कार नहीं किया, और न उनकी पयपासना ही की।
नारद मन ही मन सोचने लगे-द्रौपदी अपने रूप-लावण्य के कारण और पाँचों पाण्डवों को पतिरूप में पाकर गर्विष्ठा हो गई है,
६. इमं च णं कच्छुल्लणारए दसणेणं इअभद्दए विणीए अंतो अंतो य कलुसहिए।
ज्ञाताधर्म अ० १६, पृ० ४६१ ७. (क) तए णं सा दोवई देवी कच्छुल्लनारयं असंजयं अविरयं
अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मं ति कटु नो आढाइ नो परियाणाइ, नो अब्भुट्ठ इ, नो पज्जुवासइ ।
-ज्ञाताधर्म अ० १६, पृ० ४६४
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