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________________ जरासंध का युद्ध २६३ बलपूर्वक बहुत से राजाओं को हराकर, बलिदान की इच्छा, से अपने यहाँ कैद कर रखा है। ऐसा अति कुटिल दोष करके भी तुम अपने को निर्दोष समझ रहे हो ! कौन पुरुष, विना किसी अपराध के अपने सजातीय भाइयों की हत्या करना चाहेगा? फिर तुम तो नृपति हो ! क्या समझ कर उन राजाओं को पकड़कर महादेव के आगे उनका बलिदान करना चाहते हो? हम लोग धर्म का आचरण करने वाले और धर्म की रक्षा करने में समर्थ हैं। इस कारण यदि हम तुम्हारे इस क्र र कार्य में हस्तक्षेप न करें तो हमें भी तुम्हारे किए पाप का भागी बनना पड़ेगा। हमने कभी और कहीं मनुष्य बलि होते नहीं देखी है, न सुनी ही है। फिर तुम मनुष्यों के बलिदान से क्यों देवता को सन्तुष्ट करना चाहते हो ? हे जरासंध ! तुम क्षत्रिय होकर पशुओं की जगह क्षत्रियों की बलि देना चाहते हो ! तुम्हारे सिवाय कौन मूढ ऐसा करने का विचार करेगा ? तुम्हें उन कर्मों का फल अवश्य भोगना पड़ेगा। तुम अपनी जाति का विनाश करते हो और हम लोग पीड़ितों की सहायता करते हैं । ३३. त्वया चोपहृता राजन् ! क्षत्रिया लोकवासिनः तदागः क्रूरमुत्पाद्य मन्यसे किमनागसम् । राजा राज्ञः कथं साधून्हिस्यान्नृपतिसत्तम ! तद्राज्ञः संनिगृह्य त्वं रुद्रायोपहिजीर्षसि ।। अस्मांस्तदेनोपगच्छेत्कृतं बाहद्रथ ! त्वया । वयं हि शक्ता धर्मस्य रक्षणे धर्मचारिणः ॥ मनुष्याणां समालम्भो न च दृष्टः कदाचन । स कथं मानुषेर्देवं यष्टुमिच्छसि शंकरम् ॥ सवर्णो हि सवर्णानां पशुसंज्ञा करिष्यसि । कोऽन्य एवं यथा हि त्वं जरासंध ! वृथामतिः ॥ यस्यां यस्यामवस्थायां यद्यत्कर्म करोति यः । तस्यां तस्यामवस्थायां तत्फलं समवाप्नुयात् ।। ते त्वां ज्ञातिक्षयकरं वयमार्तानुसारिणः । ज्ञातिवृद्धिनिमित्तार्थं विनिहन्तुमिहाऽऽगताः ।। _-- महाभारत, सभापर्व, अ० २२, श्लो० ८ से १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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