________________
द्वारिका में श्रीकृष्ण
२४६
सुनते ही राजा एकदम क्रुद्ध हुआ । उसने उसी समय उन्हें बाहर निकाल दिया । दोनों नगर के बाहर पहुँचे । शांब ने कहा- भाई ! माता रुक्मिणी दुःखी होती होगी अतः विवाह का कार्य शीघ्र संपन्न कर हमें द्वारिका जाना चाहिए ।
प्रद्युम्न अर्धरात्रि में वैदर्भी के शयनगृह में विद्याबल से पहुँचा । वैदर्भी को जगाकर उसके हाथ में माता रुक्मिणी का पत्र दिया और कहा- मैं रुक्मिणी का पुत्र प्रद्युम्न हूँ । तुम्हारी इच्छा हो तो मैं तुम्हारा पाणिग्रहण करना चाहता हूँ । वैदर्भी की इच्छा से प्रद्युम्न ने उसी समय गांधर्व विवाह कर लिया। रात्रि भर वहां रह कर प्रातःकाल शीघ्र ही वह वहां से चल दिया । चलते समय उसने कहा- कोई तुमसे मेरा नाम पूछे तो बतलाना मत । मैंने मंत्र शक्ति से तुम्हारे शरीर को मंत्रित कर दिया है । कोई तुम्हें कष्ट नहीं दे सकता ।
रात्रि भर जागरण के कारण प्रातःकाल वैदर्भी को गहरी निद्रा आगयी । प्रातःकाल धायमाता आयी और उसने वैदर्भी के हाथों में कंकरण आदि विवाह चिह्न देखे तो चकित रह गई । वैदर्भी को जगाकर पूछने पर भी उसने कुछ भी उत्तर नहीं दिया । धाय माता ने जाकर रुक्मि राजा को सारी बात कह दी । रुक्मि राजा न भी पूछा, पर उत्तर न मिलने से उसे क्रोध आया। अनुचर को भेजकर प्रद्य ुम्न और शांब को जो चण्डाल के वेश में थे, बुलाया और वैदर्भी को देते हुए कहा - इस कन्या को ग्रहण करो, और ऐसे स्थान पर चले जाओ जहां मैं तुम्हें बारह वर्ष तक भो न देख सकूं ।
प्रद्युम्न ने कहा- राजपुत्री ! क्या तुम हमारे साथ चलना पसन्द करती हो ?
राजपुत्री वैदर्भी ने स्वीकृति दी और वे वैदर्भी को लेकर चल दिये । राजा रुक्मि राजसभा में आया। उसे बहुत ही पश्चात्ताप हुआ कि मैं जोश में होश को भूल गया और वैदर्भी को चण्डाल को सौंप दी ।
राजा उदास मन से राजसभा में बैठा । उसे रह रह कर अपने दुष्टकृत्य पर विचार आने लगा । उसी समय उसके कानों में वाद्यों
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org