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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण मुनि ने कहा-राजन् ! तुम्हें किञ्चित् मात्र भी भयभीत होने की आवश्यकता नहीं है । तुम्हारे पुत्र अरिष्टनेमि बावीसवें तीर्थंकर हैं जो महान पराक्रमी व भाग्यशाली हैं। बलराम और श्रीकृष्ण क्रमशः बलदेव और वासुदेव है। वे द्वारिका नगरी बसाएंगे, और जरासंध का वध कर तीन खण्ड के अधिपति होंगे । यह सुनकर सभी यादव प्रसन्न हुए । मुनि वहां से अन्यत्र चले गये। द्वारिका का निर्माण :
वहां से समुद्रविजय सौराष्ट्र में आये । रैवतक गिरि की वायव्य दिशा में यादवों ने अपनी छावनी डाली। वहां पर सत्यभामा के भानु और भामर दो पुत्र उत्पन्न हुए, जो तेज से सम्पन्न थे। फिर कोष्टुकी के कहने से शुभ दिवस में अष्टम भक्त तप किया । तप के प्रभाव से सुस्थित देव आया। उसने श्रीकृष्ण को पाञ्चजन्य शंख,
और बलराम को सुघोष नामक शंख दिया और अन्य दिव्य रत्न, मालाए व वस्त्रादि अर्पित किये', फिर पूछा-आपने मुझे क्यों स्मरण किया है ?
श्रीकृष्ण-देव ! सुना है पहले वासुदेव की यहां पर द्वारिका नगरी थी, जिसे तुमने समुद्र में डुबा दी है। अतः मेरे लिए वैसी ही द्वारिका नगरी बसाओ। देव ने कहा-बहुत अच्छा।
देव ने इन्द्र से निवेदन किया, इन्द्र ने कुबेर को आदेश दिया, और वहां पर द्वारिका नगरी का निर्माण किया गया । द्वारिका की अवस्थिति के सम्बन्ध में हमने परिशिष्ट में विस्तार से चर्चा की है।
७. (क) ऋषिर्बभाषे मा भैषीविंशो ह्येष तीर्थकृत् ।
कुमारोऽरिष्टनेमिस्ते त्रैलोक्याद्वै तपौरुषः ।। रामकृष्णौ बलविष्णू द्वारकास्थाविमौ पुनः । जरासंधवधादर्धभरतेशौ भविष्यतः ॥
-त्रिषष्टि० ८।५।३८८-३८६ (ख) भव-भावना २५५८ ८. (क) त्रिषष्टि ० ८।५।३६१-६५
(ख) भव-भावना २५६५
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