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द्वारिका में श्रीकृष्ण उस में स्थान-स्थान पर चिताएं जलती हुई दिखाई गईं। एक वृद्धा रोती हुई वहां पर खड़ी थी। कालकुमार ने पूछा-यह क्या है ? वृद्धा ने आंसू बहाते हुए कहा-कालकुमार के भय से बलराम, श्रीकृष्ण और दशाह सभी इसमें जलकर मर गये। मैं भी अब इस चिता में जलकर मर जाऊंगी।
उस बुढ़िया से कालकुमार ने कहा-मैंने पिताजी व बहिन जीवयशा के सामने प्रतिज्ञा ग्रहण की है कि यदि वे अग्नि में जल गये होंगे तो भी मैं उसमें से निकाल दूंगा, उन्हें नष्ट करूंगा। मैं सत्यप्रतिज्ञ हूं, अतः यादवों को मारने के लिए अग्नि में प्रवेश करता हूँ। यह कहकर वह जलती हुई चिता में कूद पड़ा। सेनापति के अभाव में सेना असहाय हो गई। वह उलटे पैरों लौटकर पुनः जरासंध के पास आयी। जरासंध पुत्र के निधन के समाचार को सुनकर चिन्तातुर हो गया। सैनिकों ने जरासंध को यह भी बताया कि हमारे देखते ही देखते वह दुर्ग एवं चिताए सभी विलीन हो गई।"
यादव दल ने आगे बढ़ते हुए जब कालकुमार की बात सुनी तो वे बहुत ही प्रसन्न हुए । यादवों ने एक स्थान पर डेरा डाला । उस समय वहां पर अतिमुक्त नामक चारण मुनि आये । समुद्रविजय जी ने भक्तिभाव से मुनि को नमन किया और विनम्रतापूर्वक पूछाभगवन् ! इस विपत्ति में हमारा क्या होगा ?
३. (क) त्रिषष्टि० ८।५॥३६७-३७६
(ख) भव-भावना २५२६-२५३५ ४. त्रिषष्टि ० ८।५।३७८-३८० नोट-हरिवंशपुराण के अनुसार स्वयं जरासंध ही युद्ध के लिए
आता है पर इस प्रकार दृश्य देखकर शत्रु के नष्ट होने से उसके मन में सन्तोष होता है और वह पुनः राजगृह लौट जाता है । देखिए
-हरिवंशपुराण ४०।२८-४३, पृ० ४६६-६७ ५. (क) त्रिषष्टि० ८।५।३८२-३८४
(ख) भव-भावना २५३६ ६. त्रिषष्टि० ८।५।३८६-३८७ १५
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