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________________ २१० भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण हुआ। वह सीधा ही गोकुल में आया। वहां बलराम और श्रीकृष्ण को देखकर एक रात्रि विश्रान्ति के लिए रुका। प्रातः मथुरा का मार्ग दिखाने के लिए श्रीकृष्ण को साथ लेकर रथ पर आरूढ़ हो चला। मार्ग वृक्षों से आक्रान्त था। उस संकरे रास्ते पर रथ बड़ी कठिनता से बढ़ रहा था। एक बड़े वृक्ष से रथ टकरा गया, और वहीं फंस गया। अनाधृष्टि ने पूरा जोर लगाया पर निकल न सका। उसके निराश हो जाने पर श्रीकृष्ण ने वृक्ष को सहज ही उखाड़कर एक तरफ फेंक दिया और रथ का मार्ग सुगम बना दिया। अनाधष्टि श्रीकृष्ण के पराक्रम को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। रथ से नीचे उतरकर वह श्रीकृष्ण से प्रेमपूर्वक मिला। कृष्ण को साथ लेकर यमुना नदी में से होकर सीधे मथुरा में, जहां सभामण्डप था, पहचा। धनुष्य के पास अतिशय रूपवती सत्यभामा बैठी थी। अनाधष्टि ने धनुष्य चढ़ाने के लिए बहुत श्रम किया, पर वह धनुष्य को चढ़ा न सका । उसी समय श्रीकृष्ण उठे और उन्होंने लीलामात्र से ही शाङ्ग धनुष्य चढ़ा दिया। वसुदेव के संकेत से अनाधष्टि और श्रीकृष्ण शीघ्र ही वहां से रवाना हो गये। सर्वत्र यह वार्ता प्रसारित हो गई कि नन्द के पुत्र ने शाङ्ग धनुष्य को चढ़ा दिया । कंस ने जब यह सुना तो उसे अपार दुःख हुआ ।३२ प्रस्तुत प्रसंग जिनसेन के हरिवंशपूराण में अन्य रूप से चित्रित किया गया है। कंस गोकुल में गया, पर वहां उसे कृष्ण नहीं मिले तब वह मथुरा लौट आया। उसी समय यहां सिंहवाहिनी नागशय्या, अजितंजय नामक धनुष और पाञ्चजन्य नामक शंख ये तीन अद्भुत पदार्थ प्रकट हुए। कंस के ज्योतिषी ने बताया कि 'जो कोई नागशय्या पर चढ़कर धनुष पर डोरी चढ़ा दे और पांचजन्य शंख को फूक दे वही तुम्हारा शत्र है।' ज्योतिषी के कहे अनुसार कार्य करने वाले कंस ने अपने शत्र की तलाश करने के लिए आत्मीयजनों के द्वारा नगर में यह घोषणा करा दी कि जो कोई यहां आकर सिंहवाहिनी नागशय्या पर चढ़ेगा, अजितंजय धनुष पर डोरी ३२. (क) त्रिषष्टि० ८।५।२२३-२४२ (ख) भव-भावना गा० २३८५-२३९७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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