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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण हैं । जब कभी गोकुल में उपद्रव होता तब गोपिकाए श्रीकृष्ण को सुरक्षित देखने के लिए आकुल-व्याकुल हो जाती थीं। उसमें रासलीला का भी वर्णन है। श्रीकृष्ण को विष्णु के अवतार के रूप में चित्रित किया गया है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भाषा और विषयवैविध्य की दृष्टि से पुराण एक काल में निर्मित नहीं हुए हैं, अपितु इनकी विभिन्न कालों में रचना हई है। साम्प्रदायिक आचार्य अपनी-अपनी परम्परा अनुकूल इन पुराणों में श्रीकृष्ण के चरित्र का निरूपण करते रहे हैं।
इन्हीं पुराणों में चित्रित श्रीकृष्ण चरित्र को मुख्य आधार बनाकर संस्कृत, अपभ्रंश, हिन्दी तथा अन्यान्य प्रान्तीय भाषाओं में विपुल मात्रा में कृष्ण पर साहित्य लिखा गया। ___ जयदेव ने कृष्ण के प्रेमी रूप को ग्रहण किया, विद्यापति ने उस में अपना सुर मिलाया। कृष्ण भक्ति शाखा का प्रादुर्भाव हुआ। कृष्ण भक्ति शाखा में कृष्ण निर्गुण नहीं, सगुण हैं, वे परब्रह्म और पुरुषोत्तम हैं। पुरुषोत्तम की सभी क्रीड़ाए और लीलाए नित्य हैं। वल्लभाचार्य ने प्रेमलक्षण भक्ति को स्वीकार कर पुष्टिमार्ग का प्रवर्तन किया। उन्होंने तथा उनकी परम्परा के भक्तकवियों ने भागवत में वर्णित कृष्ण के मधुर रूप को ग्रहण किया व प्रेमतत्व की बडे विस्तार से अभिव्यंजना की। इन भक्तकवियों के कृष्ण, मर्यादापालक, लोकरक्षक कृष्ण नहीं, प्रेमोन्मत्त गोपिकाओं से घिरे हुए गोकुल के गोपीवल्लभ कृष्ण हैं । सूरदास, कुभनदास, परमानन्द दास, कृष्णदास, छीतस्वामी, गोविन्दस्वामी, चतुर्भजदास और नन्ददास ये आठों अष्टछाप के कवियों के नाम से प्रसिद्ध हैं। सभी ने कृष्ण को इष्टदेव मानकर उनकी बाललीला, और यौवनलीला का विस्तार से विश्लेषण किया है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इन कवियों ने शृङ्गार और वात्सल्य रसों को पराकाष्ठ पर पहचाया है । मुख्य रूप से इन्होंने मुक्तकों की रचना की है, प्रबन्ध के रूप में नहीं। सूर-सागर, भ्रमर-गीत आदि रचनाएं काव्य की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण हैं। मीराबाई भी कृष्ण भक्ति में लीन रहा करती थी। उसने श्रीकृष्ण को प्रियतम मानकर उपासना की। नरसीजी का मायरा, आदि उनकी प्रसिद्ध रचनाए हैं। देखिए -
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