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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण
मार डाला । उसके पश्चात् कंस स्वयं मारने को उठा, किन्तु वासुदेव ने चक्र से कंस और उपकंस दोनों भाइयों को मार दिया ।
उन्होंने असितंजन नगर और कंसभोग राज्य पर अधिकार कर लिया और अपने माता-पिता उपसागर और देवगम्भा को भी गोवड्ढमान से बुला लिया । फिर सम्पूर्ण जम्बूद्वीप का राज्य प्राप्त करने को वहाँ से चल दिये । प्रथम उन्होंने अयोध्या के राजा कालसेन को पराजित कर उसका राज्य हस्तगत किया। उसके पश्चात् वे द्वारवती पहुँचे। जहां एक ओर समुद्र और दूसरी ओर पर्वत था । वहां के राजा को मारकर उन्होंने द्वारवती पर भी अपना अधिकार कर लिया । इसप्रकार उन्होंने जम्बूद्वीप के त्र ेसठ हजार नगरों के समस्त राजाओं को चक्र से मारकर उनके राज्यों को अपने अधिकार में ले लिया था । उसके बाद द्वारवती में रहते हुए उन्होंने अपने राज्य को दस भागों में बांट लिया। नौभाग, नौ भाइयों को मिले । उनके एक भाई अंकुर ने राज्य न लेकर व्यापार करना चाहा । उसका भाग उनकी बहिन अंजन देवी को दिया गया । रोहिणोय्य उनका अमात्य था । अन्त में वासुदेव महाराज का प्रिय पुत्र मृत्यु को प्राप्त हुआ, इससे उन्हें अत्यधिक संताप हुआ। उस समय उनके भाई घट पंडित ने बड़े कौशल से उनका पुत्र शोक दूर किया । उस समय जो गाथाएँ कही गईं, उनमें वासुदेव के कण्ह (कृष्ण) और केसव (केशव) ये नाम भी मिलते हैं ।
वासुदेवादि दस भाइयों की संतान ने कृष्ण द्वीपायन का अपमान करने के लिए एक तरुण राजकुमार को गर्भवती नारी बताकर उसकी सन्तान के विषय में उनसे पूछा । कृष्ण द्वीपायन ने उनका विनाश काल निकट जानकर कहा कि इससे एक लकड़ी का टुकड़ा उत्पन्न होगा और उससे वासुदेव के कुल का सर्वनाश हो जायेगा । तुम लकड़ी को जला देना और उसकी राख नदी में फेंक देना । अन्त में उसी राख से उत्पन्न अरंड के पत्तों द्वारा परस्पर लड़कर सब लोग मर गये । मुष्टिक ने मरकर यक्ष के रूप में जन्म ग्रहण किया । वह बलदेव को खा गया । वासुदेव अपनी बहिन और पुरोहित को लेकर वहां से चला गया । मार्ग में जरा नामक शिकारी ने के भ्रम सूअर से वासुदेव पर शक्ति फेंककर उसे घायल कर दिया इससे उसकी भी मत्यु हो गई । इस गाथा को कह कर गौतम बुद्ध ने उपासक
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