________________
तीर्थंकर जीवन
१५१
वाले युधिष्टिर किञ्चित् मात्र भी विचलित नहीं हुए। वे ऊपर चढ़ते ही गये । उनके पीछे-पीछे वह कुत्ता भी चलता रहा । बहुत दूर जाने पर देवराज इन्द्र दिव्य रथ लेकर युधिष्ठिर के सामने प्रकट हुए और बोले-
युधिष्ठिर ! द्रौपदी और तुम्हारे भाई स्वर्ग पहुँच चुके हैं । अकेले तुम्हीं रह गये हो। तुम अपने शरीर के साथ ही इस रथ पर सवार होकर स्वर्ग चलो, तुम्हें ले जाने के लिए मैं आया हूँ ।
युधिष्ठिर रथ पर आरूढ़ होने लगे तब वह कुत्ता भी उनके साथ रथ पर चढ़ने लगा । इन्द्र ने उसे रोका और कहा - कुत्ते के लिए स्वर्ग में स्थान नहीं है । युधिष्ठिर ने कहा - यदि कुत्ते को स्वर्ग में रहने का स्थान नहीं है तो मुझे भी वहाँ जाने की इच्छा नहीं है ।
इन्द्र के बहुत समझाने पर भी युधिष्ठिर कुत्ते को छोड़कर अकेले स्वर्ग जाने को तैयार न हुए ।
धर्मदेव ने अपने पुत्र की परीक्षा लेने के लिए ही कुत्ते का रूप बनाया था । युधिष्ठिर की दृढ़ता देखकर वे प्रसन्न हुए और आशीर्वाद देकर अन्तर्धान हो गये ।
युधिष्ठिर स्वर्ग पहुंचे, स्वर्ग में भी उनकी परीक्षा ली गई । परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर उन्होंने मानवीय शरीर त्याग किया और अपने स्वजनों के साथ वहां आनन्दपूर्वक रहने लगे । १२८
जैन और वैदिक दोनों ही परम्परा में पाण्डवों के प्रसंग पृथक् रूप से आये हैं । जिज्ञासुओं के अन्तर्मानस में यह प्रश्न उबुद्ध हो सकता है कि पाण्डव जैन थे, या वैदिक परम्परा के अनुयायी थे ? यही प्रश्न एक बार महाराजा कुमारपाल की राजसभा में उपस्थित हुआ था । तब आचार्य हेमचन्द्र ने एक आकाशवाणी का प्रमाण देते हुए कहा - सैकड़ों भीष्म हो चुके हैं, तीन सौ पाण्डव हुए हैं, हजारों द्रोणाचार्य हो चुके हैं और कर्ण नाम वालों की तो संख्या ही नहीं है | आचार्य हेमचन्द्र ने कुमारपाल से कहा – इनमें से कोई जैन पाण्डव शत्र ुञ्जय पर्वत पर आये होंगे और कोई वैदिक परम्परा के मानने वाले पाण्डव हिमालय पर गये होंगे ! १२९
१२८. महाभारत कथा - चक्रवर्ती राजगोपालाचारी पृ० ४७४-७५
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org