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चौदह | कन्याओं से विवाह का वर्णन होने के साथ-साथ श्रीकृष्ण सम्बन्धी बहुत-सी महत्वपूर्ण सूचनाएं प्राप्त हैं।
प्राचीन जैनागमादि ग्रन्थों में श्रीकृष्ण सम्बन्धी अनेकों महत्वपूर्ण विवरण + मिलते हैं। जो महाभारत पुराणादि जैनेतर ग्रन्थों में नहीं मिलते । जैन एवं पौराणिक ग्रन्थों के तुलनात्मक अध्ययन की बड़ी आवश्यकता है । दोनों के साहित्य के तटस्थ अध्ययन से अनेक नवीन तथ्य प्रकाश में आ सकेंगे।
श्रीकृष्ण नीति निपुण राजनेता, धर्म संस्थापक, सबके सुहृद व सहायक और महान शासक होने के साथ-साथ धर्मज्ञ भी थे। महाभारत और पूराणों से उनके बहुरंगी व्यक्तित्व का बड़ा सुन्दर परिचय मिलता है। महाभारत में युद्ध के समय कर्मयोगी कृष्ण ने अर्जुन को जो (भगवद् गीता के रूप में) उपदेश दिया था वह विश्वसाहित्य में सर्वाधिक प्रसिद्ध और बड़ा प्रेरणादायी व मार्गदर्शक है । गीता में वैदिक हिंसात्मक यज्ञ आदि का निषेध या विरोध किया गया है और जैन धर्म से बहुत सी मिलती जुलती बातें प्रतिपादित की गई हैं। गीता में समन्वय की प्रधानता दिखाई देती है। जैन धर्म में भी अनेकान्त दृष्टि की मुख्यता है । भगवद्गीता में अनासक्ति एवं समन्वय को महत्व दिया गया है। जो जैन धर्म का भी मर्म या प्राण है। श्री संतबालजी ने जैनदृष्टिकोण से गीता पर विस्तृत विवेचन लिखा है और आचाराङ्ग आदि से गीता वाक्यों की तुलना की है। जोधपुर के श्री दौलतरामजी मेहता ने तो गीता की जैन दृष्टि से गहरी छान-बीन की है । उनका मंथन किया हुआ ग्रन्थ प्रकाशित होने पर बहुत से नये तथ्य प्रकाश में आवेंगे।
महाभारत में भी अनेक स्थल जैन मान्यताओं से मिलते-जुलते हैं । महाभारत के विशिष्ट अभ्यासी श्री उपेन्द्र राय सांडेसरा की एक पुस्तक महाभारत अने उत्तराध्ययन सूत्र प्रकाशित हो चुकी हैं। श्रीचन्द जी रामपुरिया ने भी महाभारत का बड़ा अच्छा अध्ययन किया है और भी कई विद्वानों के महाभारत सम्बन्धी ग्रन्थ मैंने पढ़े हैं, उससे उस पर जैन प्रभाव पुष्ट होता है। श्री दौलतराम जी मेहता ने लिखा है कि गीता प्रेस गोरखपुर से प्रकाशित सचित्र हिन्दी अनुवाद वाले महाभारत के शान्तिपर्व अध्याय २७८ के श्लोक २ में अरिष्टनेमि का नाम और श्लोक ३ में उनको परम ब्राह्मण कहा गया है। जैनागम मान्य समुद्रविजय आदि अनेक उल्लेखनीय व्यक्तियों का विवरण महाभारत में जानबूझकर छोड़ दिया गया प्रतीत होता है ।
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