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दिगम्बर परम्परा में :
दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में पाण्डवों के सम्बन्ध में पृथक् रूप से उल्लेख मिलता है :
जरत्कुमार के द्वारा द्वारिकादहन, कृष्णमरण, बलभद्र मुनि का दीक्षाग्रहण प्रभृति समाचार सुनकर मथुरा से पाण्डव भगवान् अरिष्टनेमि के पास आते हैं । ११६ उस समय भगवान् पल्लव देश में विहार कर रहे थे । ११७ पाण्डवों के मन में कृष्णमरण और द्वारिका नगरी के विनाश से वैराग्य भावना उत्पन्न हो गई थी । उन्हें संसार के नश्वर स्वरूप का ज्ञान हो गया था । उन्होंने भगवान् को वन्दन कर पूर्व भव पूछे । ११८ भगवान् ने विस्तार के साथ उनके पूर्वभवों का निरुपण किया । पूर्वभवों को सुनकर वैराग्य में और अधिक अभिवृद्धि हुई । भगवान् के पास उन्होंने दीक्षा ग्रहण की । १११ कुन्ती, द्रौपदी, तथा सुभद्रा ने भी राजमती आर्या से पास संयम लिया । १२० सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्र व तप का आचरण करने
(ख) त्रिषष्टि० ८।१२
(ग) पाण्डवचरित्र सर्ग १८, पृ० ५८१
११६. यत्सर्वं पाण्डवाः श्रुत्वा तदायन्मधुराधिपाः ।
स्वामिबन्धुवियोगेन निर्विद्य त्यक्तराज्यकाः ॥ महाप्रस्थान कर्माणः प्राप्य नेमिजिनेश्वरम् । तत्कालोचित सत्कर्म सर्वं निर्माप्य भाक्तिकाः ।।
११७. अथ
भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण
- उत्तरपुराण ७२।२२४-२३५ पाण्डवाश्चण्डसंसारभयभीरवः ।
प्राप्य पल्लवदेशेषु विहरन्तं जिनेश्वरम् ॥
(ख) पाण्डवपुराण २३।३३ पृ० ४७३ ११८. ( क ) हरिवंशपुराण ६४ | ३
११. हरिवंशपुराण ६४ । १४३
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(ख) उत्तरपुराण ७२।२२६
(ग) पाण्डवपुराण, पर्व २३, श्लोक ७३ ७५, पृ० ४७७ - शुभचन्द्राचार्य विरचित, जीवराज गौतमचन्द दोशी, सोलापुर द्वारा प्रकाशित, सन् १९५४
- हरिवंशपुराण : ४|१
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