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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण युधिष्ठिर आदि पाँचों भनगार निरन्तर मास-मास का तपःकर्म करते हुए, एक ग्राम से दूसरे ग्राम होते हुए, हस्तिकल्प नगर के सहस्राम्र उद्यान में पधारे। यथाप्रतिरूप अभिग्रह ग्रहण कर संयम
और तप से आत्मा को भावित करते हुए वहां ठहरे । १०० मन में ये विचार चल रहे थे कि अब भगवान् सिर्फ बारह योजन दूर है, अतः शीघ्र जाकर भगवान् के दर्शन करेंगे। मन में अपार प्रसन्नता थी।१० प्रथम प्रहर में स्वाध्याय तथा दूसरे प्रहर में ध्यान कर, तीसरे प्रहर में युधिष्ठिर मुनि की आज्ञा लेकर भीम, अर्जुन, नकुल
और सहदेव मुनि मासखमण के पारणा के लिए नगर में पधारे । भिक्षा के लिए परिभ्रमण करते हुए उन्होंने अनेक व्यक्तियों के मुह से सुना कि अर्हत् अरिष्टनेमि ने उज्जयन्त शैल-शिखर पर जलरहित एक मास के अनशन से पांच सौ छत्तीस श्रमणों के साथ काल धर्म को प्राप्त किया है, यावत् वे सभी दुःखों से मुक्त हुए हैं । ११० ___ यह वृत्त सुनकर चारों अनगार सहस्राम्र उद्यान में पधारे । भात पानी का प्रत्यूपेक्षण किया । गमनागमन का प्रतिक्रमण कर एषणा अनैषणा की आलोचना की । लाये हुए भोजन को युधिष्ठिर अनगार को दिखाते हुए बोले–देवानुप्रिय ! निश्चय ही अर्हत् अरिष्टनेमि उज्जयन्त शैल-शिखर पर पाँच सौ अनगारों के साथ जल रहित अनशन कर मुक्त हुए है । अतः देवानुप्रिय ! हमारे लिए यही श्रेयस्कर है कि इस ग्रहीत भक्त पान का परिष्ठापन कर शत्र जय पर्वत पर शनैः-शनैः चढ़कर, संलेखना से आत्मा को कश कर मृत्यु की विना इच्छा किये विचरण करें।१११ इस प्रकार विचार कर वे शत्र जय
१०८. तए णं ते जुहिट्ठिलपामोक्खा पंच अणगारा थेरेहि अब्भुणुन्नाया
समाणा थेरे भगवंते वदंति नमसंति वं० २ ता थेराणं अंतियाओ पडि-निक्खमंति मासंमासेणं अणि क्खित्तणं तवोकम्मेणं गामाणुगाम दूइज्जमाणा जेणेव हत्थकप्पे तेणेव उवागच्छंति, हत्थकप्पस्स बहिया सहसंबवणे उज्जाणे जाव विहरंति ।
---ज्ञातासूत्र १।१६ १०६. त्रिषष्टि० ८।१२ ११०. (क) ज्ञातासूत्र १११६
(ख) त्रिषष्टि० ८।१२
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