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________________ १४० भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण वहाँ का राजा महाबल था और रानी पद्मावती थी। उसका वीरंगत पुत्र था, जिसका बत्तीस कन्याओं के साथ पाणिग्रहण हुआ था । एक बार वहां आचार्य सिद्धार्थ अपने शिष्य परिवार सहित पधारे । उपदेश सुन वह श्रमण बना, ग्यारह अंगों का अध्ययन किया, उत्कृष्ट तपः साधना की, अन्त में समाधिमरण प्राप्त कर पांचवें ब्रह्मदेवलोक में देव हुआ । वहां से आयु पूर्ण कर बलदेव की पत्नी रेवती का पुत्र हुआ । यह विराट् सम्पत्ति और ऋद्धि पूर्वकृत शुभ पुण्य का फल है । वरदत्त ने पूछा- भगवन् ! क्या यह निषधकुमार आपके सन्निकट प्रव्रजित होगा ?" भगवान् ने कहा- हां, यह अनगारवृत्ति स्वीकार करेगा । एक बार भगवान् पुनः द्वारिका पधारे । भगवान् की वाणी सुनकर निषधकुमार ने संयम ग्रहण किया । तथारूप स्थविरों के पास सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया । तथा बहुत से चतुर्थ, षष्ठ, अष्टम आदि विचित्र तपों से आत्मा को भावित करते हुए, पूरे नौ वर्षों तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया । अन्त में बयालीस भक्तों का अनशन से छेदन कर, पाप स्थानकों की आलोचना और प्रतिक्रमण कर समाधिपूर्वक कालगत हुआ । निषधकुमार को कालगत जानकर वरदत्त ने भगवान् से प्रश्न किया - भगवन् ! आपका शिष्य निषध अनगार जो प्रकृति से भद्र और विनयी था, काल प्राप्त कर कहाँ गया है ? कहां उत्पन्न हुआ है ? भगवान् ने कहा- वह सर्वार्थसिद्ध विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ है | उसने तेतीस सागरोपम की स्थिति पायी है । ३ बलदेव को प्रतिबोध : बलदेव श्रीकृष्ण के ज्येष्ठ भ्राता थे । उनका श्रीकृष्ण पर अत्यधिक अनुराग था । मोह के प्राबल्य के कारण वे एक दूसरे के विना रह नहीं सकते थे । श्रीकृष्ण को प्यास लगी । बलदेव पानी लेकर लौटते हैं । श्रीकृष्ण को चिरनिद्रा अधीन देखकर मूच्छित हो जमीन पर गिर पड़ते हैं । होश आने पर बालक की तरह करुरण ६३. निरियावलिआ - वर्ग ५-१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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