________________
तीर्थंकर जीवन
१३६
यह भिक्षा श्रीकृष्ण के प्रभाव से तुम्हें मिली है । ढंढण मुनि ने सुना, किन्तु उनके अन्तर्मानस में तनिक मात्र भी ग्लानि नहीं हुई ।
ढंढण मुनि विचारने लगे - जो भिक्षा पर के प्रभाव से मिली हो कितनी भी सुन्दर क्यों न हो, मेरे लिए अग्राह्य है ।
वह
ढण मुनि एकान्त स्थान पर पहुँचे । विवेक से मोदकों को डालने (परठने लगे | विचारधारा शुद्धता की ओर बढ़ी। घनघाती कर्म नष्ट हुए, केवलज्ञान केवलदर्शन की उपलब्धि हुई । तब ये भगवान् की प्रदक्षिणा कर केवली परिषद् में जा बैठे ।
निराशा के वातावरण में भी जो आशा के दीप संजोये रहता है, वही तो महान् कलाकार है । ढंढरण मुनि वैसे ही कलाकार थे । १२ निषधकुमार :
एक समय भगवान् अरिष्टनेमि द्वारिका नगरी में पधारे । वासुदेव श्रीकृष्ण ने यह शुभ संवाद सुना, उनके नेत्रों में प्रसन्नता चमक उठी । प्रभु का आगमन, नगर का अहोभाग्य, भगवान् का दर्शन ! जीवन की धन्यता है । वासुदेव के आदेश से द्वारिका सजाई गई । दर्शन यात्रा की तैयारी होने लगी । वासुदेव वस्त्रालंकारों से सुसज्जित होकर, राजकीय वैभव के साथ प्रभु दर्शन को चल पड़े । निषधकुमार ने सुना, वह भी बड़े ठाठ के साथ भगवान् को वन्दन करने के लिए पहुँचा । भगवान् की वाणी को सुनकर श्रावक के व्रतों को स्वीकार किया ।
उस समय भगवान् अरिष्टनेमि के प्रधान शिष्य गणधर वरदत्त अनगार ने भगवान् से प्रश्न किया -- भगवन् ! यह निषधकुमार इष्ट है, इष्टरूप है, कान्त है, कान्त रूप है, प्रिय है, मनोज्ञ है, मनोरम है, सोम है, सोमरूप है, प्रियदर्शन है सुरूप है । हे भदन्त ! इस निषधकुमार को मानव सम्बन्धी यह ऋद्धि कैसे प्राप्त हुई ?
भगवान् अरिष्टनेमि ने समाधान करते हुए कहा - उस काल उस समय में जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र में रोहितक नामक नगर था ।
२. (क) उत्तराध्ययन अध्ययन, २, गाथा ० की टीका (ख) त्रिषष्टि० पर्व ८, सर्ग १० पृ० २१०-११ (ग) भरतेश्वर बाहुबलि वृत्ति, पूर्वभाग
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org