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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण निकलता है तो भिक्षा उपलब्ध नहीं होती। अन्तराय कर्म के प्रबलतम उदय से उसे सर्वत्र अलाभ ही अलाभ का सामना करना पड़ता है। कदाचित् लाभ होता भी है तो इसी कारण कि यह राजकुमार है। __ढंढणमुनि ने यह उन अभिग्रह गहण कर लिया है कि परनिमित्त से होने वाले लाभ को मैं गहण नहीं करूगा । ढंढणमुनि के महान अभिग्रह को जानकर कृष्ण के मन में उनके दर्शन करने की तीव्र भावना उबुद्ध हुई । तब उन्होंने पूछा-भगवन् ! ढंढणमुनि इस समय कहाँ हैं ? __भगवान् ने कहा-कृष्ण ! यहां से द्वारिका जाते समय जब तुम नगरी में प्रवेश करोगे, तब तुम्हें भिक्षा के लिए घूमते हुए ढंढण मुनि दिखलाई देंगे। __ श्रीकृष्ण भगवान को वन्दन कर गजारूढ़ हो बढे जा रहे थे। नगरी में प्रवेश करते ही सामने से ढंढण मुनि आते दिखलाई दिये। हाथी से उतरकर ढंढण मुनि के दर्शन किये, सुख-शान्ति पूछी। हजारों श्रमणों में अद्वितीय उग्र तपस्वी के दर्शन कर वासुदेव सहसा धन्य धन्य कह उठे। मन में आनन्द की ये ऊर्मियां तरंगित हो गईयादव जाति धन्य है जिसमें एक से एक बढ़कर तपोधन, त्यागी, वैरागी, आत्माए साधना के क्षितिज पर निर्मल नक्षत्र की तरह चमक रही हैं। __ भव्य-भवन के गवाक्ष से श्रीकृष्ण को वन्दन करते हुए एक सेठ ने देखा। मन में सोचा-यह कोई विशिष्ट सन्त है जिसे तीन खण्ड के अधिपति श्रीकृष्ण भी रास्ते में वन्दन कर रहे हैं।
श्रीकृष्ण वन्दन कर आगे बढ़े। मूनि ने भिक्षा के लिए उसी श्रेष्ठी के घर में प्रवेश किया। सेठ ने भक्ति के साथ मुनि को मोदकों का दान दिया। भिक्षा लेकर मुनि भगवान् के चरणों में पहुँचे । अत्यन्त नम्रता के साथ भगवान् से पूछा --- भगवन् ! क्या मेरा अन्तराय कर्म क्षीण हो गया है ? क्या यह भिक्षा मेरी अपनी लब्धि की है ?
भगवान् ने कहा-नहीं ! अभी तुम्हारा अन्तराय कर्म नष्ट नहीं हुआ है । तुम्हारी यह भिक्षा पर-निमित्त की है, स्व-निमित्त की नहीं।
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