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तीर्थकर जीवन
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वही दूंगा । पालक को रातभर नींद नहीं आयी । वह यही सोचता रहा कि कहीं शाम्ब मुझसे पूर्व वन्दन के लिए न चला जाए। वह प्रातःकाल बहुत शीघ्र उठा, घोड़े पर बैठकर भगवान् जहां विराजे वहां उनकी सेवा में पहुँचा । भगवान् को वन्दन किया । वह बाहर से भगवान् को नमस्कार कर रहा था पर उसके अन्तर्मानस में लोभ की आग जल रही थी ।
शाम्ब कुमार भी जगा, शय्या से उतरकर भगवान् को वहीं से उसने भक्ति भाव-विभोर होकर नमस्कार किया ।
पालक श्रीकृष्ण के पास पहुँचा । उसने कहा - पिताजी, आज सबसे प्रथम अरिष्टनेमि को वन्दन करके आया हूँ अतः मुझे दर्पक नामक अश्व मिलना चाहिए ।
सूर्योदय होने पर श्रीकृष्ण भगवान् को वन्दन करने के लिए गये । उन्होंने भगवान् से पूछा - भगवन्, आज सर्वप्रथम आपको पालक ने वन्दना की या शाम्ब ने ? भगवान् ने उत्तर दिया - द्रव्य से पालक ने और भाव से शाम्ब ने । उपहार शाम्ब को मिला । ११ ढंढण मुनि :
ढढणकुमार वासुदेव श्रीकृष्ण का पुत्र था । वह भगवान् श्री अरिष्टनेमि की कल्याणी वाणी श्रवण कर भोग से विमुख होकर योग की ओर बढ़ा था । दीक्षा ग्रहण की थी । अल्प समय में ही वह उग्र तप की साधना करने लगा ।
एकसमय श्रीकृष्ण ने भगवान् से पूछा - भगवन् ! आपके अठारह सहस्र श्रमणों में से सबसे अधिक उग्र तपस्वी, सबसे कठोर साधक, और सबसे उत्कृष्ट चारित्रवान् कौन श्रमण हैं ?
सर्वज्ञ यथार्थवक्ता होते हैं । वह सदा सत्य और स्पष्ट बात कहते हैं । भगवान् ने कहा- 'ढंढरा मुनि' !
श्रीकृष्ण ने पुनः जिज्ञासा प्रस्तुत की । भगवन् ! अल्पसमय में ही ढंढरण मुनि ने ऐसी कौन-सी कठोर व उग्र साधना की है ?
भगवान् ने समाधान करते हुए कहा - कृष्ण ! उसने अलाभ परीषह को जीत लिया है । द्वारवती नगरी में वह भिक्षा के लिए
९१. ( क ) त्रिषष्टि० पर्व ८ सर्ग १०, श्लोक २८७ से २६४
ख आवश्यक चूर्णि
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