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तीर्थकर जीवन
१३१ थावच्चापुत्र को सन्मुख कर श्रीकृष्ण ने भगवान् से निवेदन किया-प्रभो ! यह थावच्चापुत्र थावच्चा सार्थवाही का एकमात्र पूत्र है। यह अपनी माता का इष्ट, कान्त, जीवन-रूप, तथा उच्छवासनिश्वास रूप है । यह उसके हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाला है। वह इसके दर्शन दुर्लभ मानती है। यह कामभोगों से कमलवत् निलिप्त है। संसार से उद्विग्न और जन्म जरा मरण से भयभीत है। यह आपके पास प्रव्रज्या ग्रहण करना चाहता है। उसकी माता आपको यह शिष्यभिक्षा प्रदान करती है। आप इस भिक्षा को ग्रहण कर अनुगृहीत करें।
तत्पश्चात् ईशानकोण में जाकर थावच्चापुत्र ने आभरण, माला, और अलंकार उतारे । थावच्चा सार्थवाही ने उनको ग्रहण किया। फिर आँखों से अश्रु गिराती हुई बोली-वत्स ! साधना के मार्ग में प्रयत्न करना, संयम में जरा भी प्रमाद न करना। इस प्रकार उद्बोधन देकर माता जिस मार्ग से आयी उधर चली गई। थावच्चा पुत्र ने हजार पुरुषों के साथ पंचमुष्टि लोच कर प्रव्रज्या ग्रहण की। वर्षाऋतु में विहार क्यों नहीं :
एक बार भगवान् अरिष्टनेमि वर्षावास हेतु द्वारवती में समवसृत हुए। श्रीकृष्ण ने भगवान् अरिष्टनेमि से पूछा-भगवन् ! सन्तों को विहार पसन्द है । एक गाँव से दूसरे गाँव, एक नगर से दूसरे नगर जाते रहने से किसी स्थान एवं व्यक्ति के प्रति आसक्ति का भाव जागृत नहीं होता, उनकी आत्मा राग बन्धन और द्वष बन्धन से मुक्त रहती है। साथ ही जनकल्याण भी अधिक होता है । तथापि सन्त वर्षा ऋतु में विहार क्यों नहीं करते ? इसका क्या रहस्य है ?८१
भगवान् अरिष्टनेमि ने स्पष्टीकरण करते हुए कहा --कृष्ण ! वर्षाऋतु में वर्षा होने के कारण त्रस और स्थावर जीवों की अधिक उत्पत्ति हो जाती है । अहिंसा महाव्रत का उपासक सन्त, जीवों की विराधना न हो, एतदर्थे अहिंसा-दया की निर्मल भावना से एक स्थान पर अवस्थित रहकर तप और संयम की आराधना करता है।
८१. शुश्रूषमाणस्तं कृष्णो बभाषे भगवन् कथम् ।
विहरध्वे न वर्षासु यूयमन्येऽपि साधवः ॥२०१।
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