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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण
श्रीकृष्ण ने कहा- मृत्यु और जरा तो दुरतिक्रम हैं वत्स ! उन्हें रोकने की शक्ति देव, दानव और मानव किसी में भी नहीं है । विना कर्म क्षय किए उनका निवारण संभव नहीं है ।
थावच्चापुत्र - देवानुप्रिय ! एतदर्थ ही तो मैं दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ । मिथ्यात्व अविरति, प्रमाद, कषाय और योगों को नष्ट कर जन्म जरा और मरण के चक्र से मुक्त होना चाहता 1
श्रीकृष्ण ने देखा - थावच्चापुत्र का वैराग्य पक्का है। उन्होंने उसी समय अपने कौटुम्बिकपुरुष को आदेश दिया कि द्वारवती नगरी में सर्वत्र घोषणा करो कि संसार से उद्विग्न जन्म जरा और मृत्यु से भयभीत थावच्चापुत्र अर्हत् अरिष्टनेमि के पास मुण्डित होकर दीक्षा ग्रहण करना चाहता है । अतः जो भी व्यक्ति थावच्चापुत्र के साथ प्रव्रज्या लेना चाहे उसे श्रीकृष्ण वासुदेव अनुज्ञा प्रदान करते हैं । उनके आश्रित स्वजनों का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व श्रीकृष्ण वासुदेव स्वयं वहन करेंगे ।°
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श्रीकृष्ण की उद्घोषणा से एक हजार व्यक्ति थावच्चापुत्र के साथ प्रव्रज्या ग्रहण करने के लिए प्रस्तुत हुए ।
श्रीकृष्ण ने सुवर्ण और चांदी के कलशों से थावच्चापुत्र का अभिनिष्क्रमण अभिषेक किया । वस्त्र और अलंकारों से सुसज्जित कर एक हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका में उसे बिठाया और द्वारवती के मध्य भाग में होकर जहां पर अरिहन्त अरिष्टनेमि थे वहाँ पर पहुँचे ।
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७६. वहीं ० अ० ५, १
८०. एवं खलु देवाणुप्पिया ! थावच्चापुत्त संसारभउव्विग्गे, भीए जम्मणमरणाणं, इच्छइ अरहओ अरिट्ठनेमिस्स अंतिए मुडे भवित्ता पव्वइत्तए । तं जो खलु देवाणुप्पिया ! राया वा, जुवराया वा, देवी वा कुमारे वा, ईसरे वा, तलवरे वा, कोडु बिय - माडंबिय इभ सेट्ठि सेणावइ-सत्थवाहे वा थावच्चापुत्तं पव्वयंतमणुपव्वयइ, तस्स णं कण्हे वासुदेवे अणुजाणाइ, पच्छातुरस्स विय से मित्तनाइनियगसंबंधिपरिजणस्स जोगखेमं वट्टमाणं पडिवs त्ति कट्टु घोसणं घोसेह ।' जाव घोसंति ।
ज्ञातासूत्र ५। पृ० १८६
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