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तीर्थकर जीवन
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महोत्सव मनाने के लिए श्रीकृष्ण के पास गई और श्रीकृष्ण से छत्र, मुकुट, और चंवर प्रभृति वस्तुएं मांगी।
श्रीकृष्ण ने कहा- देवानुप्रिये ! तू निश्चिन्त रह, मैं स्वयं ही उसका अभिनिष्क्रमण सत्कार करूंगा ।" श्रीकृष्ण चतुरंगिणी सेना सजाकर थावच्चा सार्थवाही के घर आये । थावच्चापुत्र के वैराग्य की परीक्षा करने के लिए श्रीकृष्ण ने थावच्चापुत्र से कहा- देवानुप्रिय ! तू मुण्डित होकर श्रमरण धर्म स्वीकार न कर | मेरी भुजाओं का आश्रय ग्रहण कर और मानव सम्बन्धी विपुल कामभोगों का सेवन कर । तेरे ऊपर से जो पवन जारहा है उसे निवारण करने में तो मैं असमर्थ हूँ किन्तु इसके अतिरिक्त अन्य कोई भी तुझे किञ्चित् मात्र भी बाधा नहीं पहुँचा सकेगा । मैं सभी बाधाओं का निवारण करूंगा ।
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थावच्चापुत्र ने अत्यन्त नम्रता के साथ निवेदन किया- 'देवानुप्रिय ! यदि आप मेरे जीवन का अन्त करने वाली मृत्यु को आने से रोक सकते हों और मेरे शारीरिक सामर्थ्य एवं सौन्दर्य को नष्ट करने वाली वृद्धावस्था को रोक सकते हों तो मैं आपकी भुजाओं की छत्रछाया में मानव सम्बन्धी विषयभोगों का उपभोग करता हुआ रहूं ।
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७७. माणं तुमे देवाणुप्पिया ! मुंडे भवित्ता पव्वयाहि भुजाहि, णं देवापिया ! विउ माणुस्सर कामभोए मम बाहुच्छायापरिगहिए, केवलं देवाणुप्पियस्स अहं णो संचाएमि वाउकायं उवरिमेणं निवारित्तए । अण्णे णं देवाणुप्पियस्स जं किंचि वि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएइ तं सव्वं निवारेमि ।
-ज्ञातासूत्र अ० ५ पृ० १८५ ७८. कण्हं वासुदेवं एवं वयासी -- जइ णं तुमं देवाणुप्पिया ! मम जीवित करणं मच्चु एज्जमाणं निवारेसि, जरं वा सरीररूवविणासिणि सरीरं अश्वय-माणि निवारेसि, तए णं अहं तव बाहुच्छायापरिगहिए विउले माणुस्सर कामभोगे भुजमाणे विहरामि ।
--ज्ञातासूत्र अ० ५, पृ० १८५
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