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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण
जम्बूद्वीप के भारतवर्ष में आगामी उत्सर्पिणी काल में तुम पुण्ड्र जनपद में शतद्वार नामक नगर में बारहवां 'अमम' नामक तीर्थंकर बनोगे । अनेक वर्षों तक जन-जन का कल्याण कर अन्त में सिद्ध बुद्ध और मुक्त होओगे । ६४
यह सुनकर श्रीकृष्ण वासुदेव अत्यन्त प्रसन्न हुए । उन्होंने बाहु का आस्फोटन किया, उछाल मारी, पादन्यास किया और उच्च शब्द किया । फिर अरिष्टनेमि को वन्दन कर अपने महल में लौट गये ।
पद्मावती की दीक्षा :
भगवान् के उपदेश को सुनकर श्रीकृष्ण की अग्रमहिषी पद्मावती संसार से विरक्त हुई । उसने श्रीकृष्ण से निवेदन किया - हे देवानुप्रिय ! आपकी आज्ञा पाकर मैं अर्हत् अरिष्टनेमि से दीक्षा ग्रहण करना चाहती हूँ ।" श्रीकृष्ण ने सहर्ष अनुमति प्रदान की । अभिनिष्क्रमण अभिषेक की विराट् तैयारी की । सर्वप्रथम पद्मावती देवी को पट्ट पर आसीन एक सौ आठ सुवर्ण कलशों से अभिषिक्त किया । उसके पश्चात् अलंकारों से अलंकृत कर एक हजार पुरुषों द्वारा वहन की जाने वाली शिविका में बैठाकर रैवतक पर्वत पर सहस्राम्र-वन नामक उद्यान में पहुँचे । पद्मावती देवी शिविका से नीचे उतरी और अरिष्टनेमि के चरणों में पहुँची । श्रीकृष्ण ने भगवान् से निवेदन किया - हे भदन्त ! यह मेरी अग्रमहिषी पद्मावती देवी मुझे अत्यन्त इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मनाम, एवं अभिराम है । हे देवानुप्रिय ! मैं इसे शिष्या की भिक्षा रूप में प्रदान करता हूँ । भगवान् कृपा कर इसे स्वीकार करें ।
-माणं तुम ६४. कण्हाइ ! अरहा अरिट्ठणेमी कण्हं वासुदेवं एवं बयासीदेवाप्पिया ! ओहय जाव झियाहि । एवं खलु तुमं देवाणुप्पिया ! तच्चाओ पुढवीओ उज्जलियाओ अनंतरं उव्वट्टित्ता इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए पुंडेसु जणवएसु सयदुवारे नयरे बारसमे अममे णामं अरहा भविस्ससि । तत्थ तुमं बहूइ वासाहिं केवल परियायं पाउणित्ता सिज्झिहिसि ।
- अन्तगडदशा वर्ग ५, अ० १
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