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तीर्थंकर जीवन
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उस समय अर्हत् अरिष्टनेमि ने श्रीकृष्ण को सम्बोधित कर कहा-कष्ण ! अभी-अभी तुम्हारे अन्तर्मानस में ये विचार लहरें उठ रही थीं कि मैं जघन्य हूँ, जो प्रव्रज्या लेने में समर्थ नहीं हूँ। क्या मेरा यह कथन सत्य है ?
हाँ, प्रभो ! आपका कथन पूर्ण सत्य है, यथार्थ है-श्रीकृष्ण ने निवेदन किया।
भगवान् अरिष्टनेमि ने कहा-कृष्ण ! न कभी ऐसा हुआ है, न होता है, और न होगा ही कि वासुदेव हिरण्य राज्य आदि को त्याग कर प्रव्रज्या ग्रहण करें। क्योंकि जितने भी वासूदेव हैं, वे सभी कतनिदान होते हैं, जिससे वे प्रव्रज्या ग्रहण करने में समर्थ नहीं होते।६१
श्रीकृष्ण ने पुनः प्रश्न निवेदन किया-प्रभो ! मैं इस शरीर का त्याग कर कहाँ जाऊंगा ? कहाँ पर उत्पन्न होऊंगा ?६२
भगवान् ने समाधान देते हुए कहा-कृष्ण ! जिस समय द्वारवती नगरो द्वीपयान के कोप से भस्म होगी, उस समय तुम माता-पिता
और अपने स्वजनों से रहित होकर बलदेव के साथ एकाकी दक्षिण दिशा के किनारे बसी हुई पाण्डुमथुरा जाने के लिए निकलोगे। तुम पाण्डु राजा के पाँचों पाण्डव पुत्रों से मिलना चाहोगे । उस समय कौशाम्बी नगरी के कानन में न्यग्रोध नामक वृक्ष के नीचे, पृथ्वी शिलापट्ट पर पीत वस्त्र से अपने शरीर को आच्छादित कर तुम शयन करोगे । उस समय जराकुमार वहाँ आयेगा। मग की आशंका से तीक्ष्ण बाण छोड़ेगा । वह बाण तुम्हारे बांए पैर में लगेगा। उस बाण से विद्ध होकर कालकर तुम तृतीय पृथ्वी में उत्पन्न होओगे ।६3
यह सुन कृष्ण कुछ चिन्तित हुए। तब भगवान् अरिष्टनेमि ने कहा-हे कृष्ण ! तुम चिन्ता न करो । तृतीय पृथ्वी से निकलकर
६१. अन्तगडदशा वर्ग, ५, अ० १, सूत्र ४ ६१. भन्ते ! इओ कालमासे कालं किच्चा कहिं गमिस्सामि ! कहिं उववज्जिस्सामि ।
-वहीं, वर्ग ५, अ० १, सूत्र ५ ६३. (क) अन्तकृतदशाङ्ग वर्ग ५, अ०
(ख) त्रिषष्टि० ८।११
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