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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण
शिवादेवी और श्रीकृष्ण के अनेक राजकुमारों ने भी दीक्षा ग्रहण की।"१ कनकवती, रोहिणी और देवकी के अतिरिक्त वसुदेव की जितनी भी रानियाँ थीं उन्होंने प्रव्रज्या ग्रहण की।५२ महारानी कनकवती गृहस्थाश्रम में ही रही पर एक दिन संसार के स्वरूप का चिन्तन करते-करते घनघाती कर्मों को नष्ट कर उसने भी केवलज्ञान प्राप्त कर लिया।५३
जैसे आगमसाहित्य में भगवान् महावीर का पुनः पुनः राजगृह नगर में पधारने का वर्णन है वैसे ही भगवान् अरिष्टनेमि का द्वारिका में पधारने का वर्णन मिलता है। ___ एक बार भगवान् द्वारिका में पधारे। नन्दनवन में विराजे । उस समय भगवान् के उपदेश को सूनकर अंधकवृष्णि के पूत्र और धारिणी रानी के आत्मज गौतमकुमार ने दीक्षा ग्रहण की। संसारावस्था में ये ऋद्धिसम्पन्न थे, इनकी आठ पत्नियां थीं और एक-एक सुसराल से आठ-आठ सूवर्णकोटिका दहेज मिला था। श्रमण बनने के पश्चात् स्थविरों से सामायिक से लेकर ग्यारह अंगों का अध्ययन किया था। भगवान् की आज्ञा प्राप्त कर बारह भिक्ष प्रतिमाओं की आराधना की थी, और गुणरत्न संवत्सर तप की भी साधना की थी। बारह वर्ष तक संयम पालन कर अन्त में एक मास की संलेख ना कर सिद्ध बुद्ध और मुक्त हुए थे। गौतम की भाँति उनके अन्य समुद्र, सागर, गंभीर, स्तिमित, अचल, काम्पिल्य
५१. तेन शोकेन यदवो बहवो नेमिसन्निधौ ।
प्रवव्रजुर्दशाहश्च वसुदेवं विना नव ॥ शिवा च स्वामिनो माता सप्त चापि सहोदराः । अन्येऽपि हरिकुमारा: प्रावजन्नन्तिके प्रभो ।। विना च कनकवतीं रोहिणी देवकी तथा । वसुदेवस्य पत्न्योऽपि प्राव्रजन्नेमिसन्निधौ ।।
-त्रिषष्टि० ८।१०।१४६ से १५० ५२. गृहेऽपि कनकवत्याश्चिन्तयन्ता भवस्थितिम् । उत्पेदे केवलज्ञानं सद्यस्त्रुटितकर्मणः ॥
-त्रिषष्टि० ८।१०।१५१ ५३. अन्तकृतदशा वर्ग १, अ० १ से १० तक
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