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तीर्थकर जीवन घर के अन्दर रख रहा था। उसको देखकर तुम्हारा दयालु हृदय द्रवित हो गया । तुमने हाथी पर बैठे बैठे ही एक ईट लेकर उसके घर के अन्दर रख दी। तुम्हारा अनुकरण उन सभी ने किया जो तुम्हारे साथ यहाँ आ रहे थे । देखते ही देखते वह ईटों का ढेर उसके घर में पहुँचाया। जैसे ईट उठाकर तुमने उस वृद्ध की सहायता की वैसे ही उस पुरुष ने भी गजसुकुमार के अनेक सहस्र भवों के संचित किए हुए कर्मों की उदीरणा करके उनका सम्पूर्ण क्षय करने में सहायता की है।
कृष्ण वासुदेव--हे भदन्त ! मैं उस पुरुष को कैसे जान सकता हूँ?
'कृष्ण ! तुम उसे नगर में प्रवेश करते ही देख सकोगे, अधीर मत बनो ?' भगवान् ने कहा।
सोमिल ने सुना-श्रीकृष्ण वासुदेव भगवान् अरिष्टनेमि को वन्दन करने गये हैं, उसके अन्तर्मानस में एक महाभयानक प्रश्न कौंध उठा। वहां मेरे सभी गुप्त पाप प्रकट हो जायेंगे ! अब मुझे श्रीकृष्ण किस बेमौत से मारेंगे, कुछ पता नहीं।
सोमिल भयाक्रान्त हो नगर से अरण्य की ओर भागा जा रहा था । उधर से श्रीकृष्ण उदासीन व खिन्न मन से हाथी पर बैठकर आ रहे थे। ज्योंही उसने श्रीकृष्ण के हाथी को देखा, भयातुर हो, पछाड़ खाकर गिर पड़ा और मर गया।
कृष्ण ने देखा- यह वही दुष्ट व्यक्ति है जिसने मेरे कनिष्ट सहोदर भाई को अकाल में जीवन रहित कर दिया। उसके शव को चाण्डालों के द्वारा नगर के बाहर फिंकवा दिया।
द्वारिका महानगरी में सर्वत्र गजसुकुमार मुनि की क्षमा की चर्चा श्रद्धा-भक्ति के साथ की जाने लगी ।५० अन्य दीक्षाएँ:
गजसुकुमार के मुक्ति गमन के समाचार को श्रवण कर अन्य अनेक यादवों ने एवं समुद्रविजय, अक्षोभ्य, स्तमित, सागर, हिमवान्, अचल, धरण, पूरण, अभिचन्द्र, इन नौ दशार्हो ने तथा माता
५०. (क) अंतगडदसा वर्ग ३, अ० ८
(ख) त्रिषष्टि० पर्व ८, सर्ग १०
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