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________________ ११८ भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण पास की तलैया से गीली मिट्टी ली, और ध्यान मुद्रा में खड़े गजसुकुमार के सिर पर पाल बांधी। जलती चिता से धधकते अंगार लेकर उसमें भर दिये, और उसी क्षण वह वहाँ से चल दिया। उस तरुण-तपस्वी का मस्तक, चमडी, मज्जा मांस, सभी जलने लगे । महाभयंकर, महादारुण वेदना होने पर भी तपस्वी ध्यान मुद्रा से विचलित नहीं हुआ। उसके मन में तनिक मात्र भी विरोध या प्रतिशोध की भावना जाग्रत नहीं हुई। वह देह में नहीं, आत्मभाव में रमण कर रहा था। वह सोच रहा था- यह मेरे किए हुए कर्मों का ही फल है। कभी मैंने सोमिल से कर्ज लिया होगा, आज उसे चुका कर मुक्त हो रहा हूँ। यह थी रोष पर तोष वी शानदार विजय ! और था दानवता पर मानवता का अमर जयघोष । _दूसरे दिन अरिष्टनेमि को वन्दन करने हेतु श्रीकृष्ण पहुँचे । पर गजसूकूमार मुनि को न देखकर उन्होंने भगवान् से पूछा -~भगवन् ! मेरे लघुभ्राता गजसुकुमार मुनि कहाँ हैं ? भगवान् ने गंभीर स्वर में कहा-कृष्ण ! वह तो कृतकृत्य हो गया। उसने अपना प्रयोजन सिद्ध कर लिया। कृष्ण ने कातर स्वर में प्रतिप्रश्न किया-भगवन् ! क्या उस बाल साधक ने एक ही दिन में साधना का चरम लक्ष्य मोक्ष प्राप्त कर लिया ? __ भगवान् ने कहा-कृष्ण ! आत्मा में अनन्त बल है, वह सभी कुछ करने में समर्थ है। गजसुकुमार मुनि को एक सहायक मिल गया। उसका निमित्त पाकर उसने सिद्धि का वरण किया है। कृष्ण ने पूनः निवेदन किया-प्रभो ! यह अनार्य कर्म किसने किया ? वह कहाँ रहता है ? उसका इतना साहस ! मैं देखू वह कौन है ? भगवान् ने कहा-कृष्ण, तुम उस व्यक्ति के प्रति द्वोष न करो। उस पूरुष ने निश्चय ही गजसुकुमार मुनि को सहारा दिया है। कृष्ण ने पूछा-सो कैसे भगवन् ? भगवान--कृष्ण ! तुम अभो जब मेरे दर्शन के लिए आ रहे थे, तब रास्ते में तुमने एक वृद्ध पुरुष को देखा, जिसका शरीर जर्जरित हो चुका था । वह आतुर बुभुक्षित, तृष्णा से प्रपीडित और श्रम से थका हुआ था । वह ईटों के ढेर में से एक-एक ईट लेकर अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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