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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण
हो उठे । देवकी उन छहों अनगारों को टकटकी लगाकर लम्बे समय तक देखती रही । फिर उन्हें वन्दन नमस्कार कर भगवान् के पास आयीं और वहां भी नमस्कार कर अपने महलों में लोट आयीं । भगवान् अरिष्टनेमि भी कुछ दिन वहां विराजे फिर अन्यत्र विहार कर गए । ४.
गजसुकुमार की दीक्षा :
महारानी देवकी भगवान् अरिष्टनेमि के दर्शन कर राजमहल में लौट आयी, पर मन में शान्ति नहीं थी । एक तूफान मचल रहा था कि "मैंने सात-सात पुत्रों को जन्म दिया पर एक का भो लालनपालन करने का आनन्द न प्राप्त कर सकी । उनकी बालक्रीड़ा न देख सकी । श्रीकृष्ण वासुदेव भी छह-छह माह के पश्चात् मेरे पास आता है । वस्तुतः मैं कितनी अभागिनी हूँ," उसकी आंखों से आंसुओं की धारा छूट पड़ी । उसका मुख म्लान हो गया ।
उसी समय श्रीकृष्ण वासुदेव ने देवकी के महल में प्रवेश किया । माता को शोक से आतुर देखकर श्रीकृष्ण ने निवेदन किया- मां, क्यों चिन्ता कर रही हो ? मां ने मन की बात कही । माता की चिन्ता को दूर करने के लिए श्रीकृष्ण ने पौषधशाला में जाकर अष्टमभक्त तप कर हरिणगमेषी देव को बुलाया । हरिणगमेषी देव ने प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण से कहा- देवलोक से च्यवकर एक जीव तुम्हारा सहोदर भाई होगा किन्तु बाल्यावस्था पार कर युवावस्था में प्रवेश करने के पूर्व ही अरिष्टनेमि के पास प्रव्रज्या ग्रहण करेगा ।
समय पाकर देवकी गर्भवती हुई । स्वप्न में उसने सिंह देखा, नौ माह पूर्ण होने पर दिवाकर के समान तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया । हाथी की जीभ की तरह रक्त वर्ण होने से उसका नाम गजसुकुमाल रखा ।
गजसुकुमाल का गुलाबी बचपन महकने लगा । देवकी के महल में ही नहीं अपितु सर्वत्र उसके रूप की, लावण्य की चर्चा चलने
४६. (क) अन्तगडदशा, वर्ग ३, अ०८
(ख) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, पर्व, ८, (ग) चउप्पन्नमहापुरिसचरियं
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सर्ग १०,
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