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________________ ११६ भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण हो उठे । देवकी उन छहों अनगारों को टकटकी लगाकर लम्बे समय तक देखती रही । फिर उन्हें वन्दन नमस्कार कर भगवान् के पास आयीं और वहां भी नमस्कार कर अपने महलों में लोट आयीं । भगवान् अरिष्टनेमि भी कुछ दिन वहां विराजे फिर अन्यत्र विहार कर गए । ४. गजसुकुमार की दीक्षा : महारानी देवकी भगवान् अरिष्टनेमि के दर्शन कर राजमहल में लौट आयी, पर मन में शान्ति नहीं थी । एक तूफान मचल रहा था कि "मैंने सात-सात पुत्रों को जन्म दिया पर एक का भो लालनपालन करने का आनन्द न प्राप्त कर सकी । उनकी बालक्रीड़ा न देख सकी । श्रीकृष्ण वासुदेव भी छह-छह माह के पश्चात् मेरे पास आता है । वस्तुतः मैं कितनी अभागिनी हूँ," उसकी आंखों से आंसुओं की धारा छूट पड़ी । उसका मुख म्लान हो गया । उसी समय श्रीकृष्ण वासुदेव ने देवकी के महल में प्रवेश किया । माता को शोक से आतुर देखकर श्रीकृष्ण ने निवेदन किया- मां, क्यों चिन्ता कर रही हो ? मां ने मन की बात कही । माता की चिन्ता को दूर करने के लिए श्रीकृष्ण ने पौषधशाला में जाकर अष्टमभक्त तप कर हरिणगमेषी देव को बुलाया । हरिणगमेषी देव ने प्रसन्न होकर श्रीकृष्ण से कहा- देवलोक से च्यवकर एक जीव तुम्हारा सहोदर भाई होगा किन्तु बाल्यावस्था पार कर युवावस्था में प्रवेश करने के पूर्व ही अरिष्टनेमि के पास प्रव्रज्या ग्रहण करेगा । समय पाकर देवकी गर्भवती हुई । स्वप्न में उसने सिंह देखा, नौ माह पूर्ण होने पर दिवाकर के समान तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया । हाथी की जीभ की तरह रक्त वर्ण होने से उसका नाम गजसुकुमाल रखा । गजसुकुमाल का गुलाबी बचपन महकने लगा । देवकी के महल में ही नहीं अपितु सर्वत्र उसके रूप की, लावण्य की चर्चा चलने ४६. (क) अन्तगडदशा, वर्ग ३, अ०८ (ख) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित, पर्व, ८, (ग) चउप्पन्नमहापुरिसचरियं Jain Education International सर्ग १०, For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003179
Book TitleBhagwan Arishtanemi aur Karmayogi Shreekrushna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1971
Total Pages456
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size16 MB
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