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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण पहले की तरह ही उन्हें भी आदर-सत्कार के साथ मोदकों का दान दिया।
प्रतिलाभ के पश्चात् देवकी ने अपने अन्तर्मानस की जिज्ञासा प्रस्तुत की - 'भगवन् ! वासुदेव श्रीकृष्ण की नौ योजन विस्तृत,
और बारह योजन लम्बी इस द्वारिका में उच्च, मध्यम और निम्न कुलों में परिभ्रमण करते हुए निर्ग्रन्थों को क्या भक्त पान नहीं मिलता है, जिससे उन्हें एक ही घर में आहार पानी के लिए पुनः पुनः अनुप्रविष्ट होना पड़ता है ? ____ अनगारों ने समाधान करते हुए कहा-देवानुप्रिये ! न तो ऐसा ही है कि द्वारवती नगरी में भिक्षा न मिलती हो और न यही सत्य है कि पुनः पुनः एक ही गृहस्थ के घर में अनगार प्रवेश करते हों। तथापि तुम्हें जो शंका हुई है उसका मूल कारण यह है कि हम भदिलपुर नगर के निवासी नाग गाथापति के पुत्र और सुलसा माता के आत्मज छह सहोदर भाई हैं। हम रूप, रंग, आयु आदि में समान हैं। हम छहों भाइयों ने भगवान् अरिष्टनेमि के पास प्रव्रज्या ग्रहण की है। जिस दिन हमने प्रव्रज्या ग्रहण की उसी दिन से यह प्रतिज्ञा भी ग्रहण की कि षष्ठ-षष्ठ तप कर विचरेंगे। आज पारणा के दिन हम तीन संघाटक के रूप में भिक्षा के लिए निकले हैं। यदि हमसे पहले कोई आये हों वे तो मुनि अन्य हैं, हम अन्य हैं । इस प्रकार कह वे जिस दिशा से आये थे उधर चले गये ।
मुनियों के चले जाने के पश्चात् देवकी के मन में विचार उत्पन्न हुआ। अतीत की स्मति उद्बुद्ध हुई-मुझे पोलासपुर नगर में अतिमुक्त नामक श्रमण ने कहा था---'तुम एक सरीखे और नलकुबेर के समान आठ पुत्रों को जन्म दोगी । तुम्हारे समान अन्य कोई भी माता वैसे पुत्रों को जन्म देने वाली नहीं होगी।' पर प्रत्यक्ष है कि दूसरी माता ने भी वैसे पुत्रों को जन्म दिया है। मुनि की भविष्यवाणी कैसे मिथ्या हो गई, जरा, जाऊँ, और अर्हत् अरिष्टनेमि से पूछू।" इस प्रकार चिन्तन कर देवकी धर्मयान में आरूढ़ हो भगवान् के दर्शन के लिए पहुंची।
अर्हत् अरिष्टनेमि ने देवकी के प्रश्न करने से पूर्व ही स्पष्ट किया-तुम्हारे अन्तर्मानस में इस प्रकार के विविध भाव उठे, और
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