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भगवान अरिष्टनेमि और श्रीकृष्ण पहुँचते हैं, अशोकवृक्ष के नीचे अपने हाथ से आभूषण आदि उतारते हैं और पंचमूष्टि लोच करते हैं, निर्जल षष्ठ भक्त के साथ चित्रा नक्षत्र के योग में एक देवदूष्य वस्त्र को लेकर हजार पुरुषों के साथ मुण्डित होते हैं, गृहवास को त्याग कर अनगारत्व स्वीकार करते हैं । ज्योंही अरिष्टनेमि प्रभु अनगारत्व स्वीकार करते हैं त्योंही उन्हें मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न होता है । __श्रीकृष्ण वासुदेव ने लुप्त-केश और जितेन्द्रिय भगवान् से कहा"दमीश्वर ! तुम अपने इच्छित-मनोरथ को शीघ्र प्राप्त करो।
तुम ज्ञान, दर्शन, चारित्र, क्षान्ति और मुक्ति की ओर बढ़ो।"
प्रव्रज्या के पश्चात् बलराम श्रीकृष्ण दशार्ह तथा अन्य बहुत से व्यक्ति अरिष्टनेमि को वन्दन कर द्वारिकापुरी में लौटे।
नोट- यहां यह स्मरण रखना चाहिए द्वारिका अरिष्टनेमि की जन्मभूमि
नहीं थी, ऋषभ और अरिष्टनेमि के अतिरिक्त शेष बावीस तीर्थंकरों ने अपनी जन्मभूमि से ही अभिनिष्क्रण किया था । उसभो अ विणीआए, बारवईए अरिटुवंनेमी। अवसेसा तित्थयरा, निक्खंता जम्मभूमीसु॥
-आवश्यकनियुक्ति २२६ २. (क) अह से सुगंधगंधिए, तुरियं मउयकुचिए । सयमेव लुचई केसे पंचमुट्ठीहिं समाहिओ ॥
-- उत्तराध्ययन २२।२४ (ख) कल्पसूत्र १६४, पृ० २३१ ४. (क) समवायाङ्ग सूत्र १५७।२३
(ख) कल्पसूत्र सू० १६४, पृ० २३१ (ग) सव्वेऽवि एगदूसेण निग्गया जिणवरा चउव्वीसं ।
- आवश्यक नियुक्ति २२७ ५. (क) साहस्सीए परिवुडो।
-उत्तराध्ययन २२।२३ (ख) आवश्यक नियुक्ति गा० २२५ ६. (क) हरिवंशपुराण ५५॥१२५, पृ० ६३२ (ख) मनः पर्ययसंज्ञच जज्ञ ज्ञानं जगद्गुरोः ।
-त्रिषष्टि० ८।६।२५३ ७. उत्तराध्ययन २१ गा० २५.२६-२७
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