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भगवती सूत्र : परिशीलन ७७ प्रथम मत यह है कि समय, आवलिका, मुहूर्त, दिन-रात आदि जो भी व्यवहार काल-साध्य हैं वे सभी पर्याय-विशेष के संकेत हैं। पर्याय, यह जीव-अजीव की क्रिया-विशेष है जो किसी भी तत्त्वान्तर की प्रेरणा के बिना होती है, अर्थात् जीव-अजीव दोनों अपने-अपने पर्याय रूप में स्वतः ही परिणत हुआ करते हैं अतः जीव-अजीव के पर्याय-पुंज को ही काल कहना चाहिए। काल अपने-आप में कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है |२३२ .
द्वितीय मत यह है कि जैसे जीव और पुद्गल स्वयं ही गति करते हैं और स्वयं ही स्थिर होते हैं, उनकी गति और स्थिति में निमित्त रूप से धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं, वैसे ही जीव और अजीव में पर्याय-परिणमन का स्वभाव होने पर भी उसके निमित्तकारण रूप काल द्रव्य को मानना चाहिए।२३३ ___ उक्त दोनों कथन परस्पर विरोधी नहीं किन्तु सापेक्ष हैं। निश्चय दृष्टि से काल जीव-अजीव की पर्याय है और व्यवहार दृष्टि से वह द्रव्य है। उसे द्रव्य मानने का कारण उसकी उपयोगिता है। वर्तना, परिणाम, क्रिया, परत्व-अपरत्व ये काल के उपकारक हैं। इन्हीं के कारण वह द्रव्य माना जाता है। उसका व्यवहार पदार्थों की स्थिति आदि के लिए होता है।
निश्चय दृष्टि से काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने की आवश्यकता नहीं है। उसे जीव और अजीव के पर्यायरूप मानने से ही सभी कार्य व सभी व्यवहार सम्पन्न हो सकते हैं। व्यवहार की दृष्टि से ही उसे स्वतन्त्र द्रव्य माना है और उसे पृथक् द्रव्य गिनाया गया है२३४ एवं उसे जीवाजीवात्मक भी कहा है।२३५
वेद व उपनिषदों में काल शब्द का प्रयोग अनेक स्थलों पर हआ है, किन्तु वैदिक महर्षियों का काल के सम्बन्ध में क्या मन्तव्य है, यह स्पष्ट नहीं होता। वैशेषिकदर्शन का यह मन्तव्य है कि काल द्रव्य है, नित्य है, एक है
और सम्पूर्ण कार्यों का निमित्त है।२३६ न्यायदर्शन में काल के सम्बन्ध में वैशेषिकदर्शन का ही अनुसरण किया गया है।२३७ पूर्वमामांसा के प्रणेता जैमिनि ने काल तत्त्व के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का उल्लेख नहीं किया है तथापि पूर्वमीमांसा के समर्थ व्याख्याकार पार्थसारथी मिश्र की शास्त्रदीपिका पर युक्ति-स्नेहप्रपूरणी सिद्धान्तचन्द्रिका२३८ में पण्डित रामकृष्ण ने काल तत्त्व सम्बन्धी मीमांसक मत का प्रतिपादन करते हुए वैशेषिकदर्शन की काल की मान्यता को स्वीकार किया है, पर अन्तर यह है कि
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