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कालद्रव्य : एक चिन्तन
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भगवतीसूत्र, शतक ११, उद्देशक ११ में सुदर्शन सेठ का वर्णन है। वह वाणिज्यग्राम का रहने वाला था। उसने भगवान महावीर से पूछा कि काल कितने प्रकार का है ? भगवान् ने कहा कि काल के चार प्रकार हैंप्रमाणकाल, यथायुरनिवृत्तिकाल, मरणकाल और अद्धाकाल। इन चार प्रकारों में प्रमाण काल के दिवसप्रमाण काल और रात्रिप्रमाण काल ये दो प्रकार हैं। इस काल में भी दक्षिणायन और उत्तरायण होने पर दिन-रात्रि का समय कम-ज्यादा होता रहता है। दूसरा काल है, यथायुरनिवृत्ति काल अर्थात् नरक, मनुष्य, देव, और तिर्यञ्च ने जैसा आयुष्य बांधा है उसका पालन करना। तीसरा काल है-मरणकाल। शरीर से जीव का पृथक् होना मरणकाल है। चतुर्थ काल है-अद्धाकाल। वह एक समय से लेकर शीर्षप्रहेलिका तक संख्यात काल है और उसके बाद जिसको बताने के लिये उपमा आदि का प्रयोग किया जाय जैसे-पल्योपम, सागरोपम आदि वह असंख्यात काल है। जिसको उपमा के द्वारा भी न कहा जा सके, वह अनन्त है। __काल के सम्बन्ध में जैनसाहित्य में विस्तार से विवेचन है। वहाँ पर विभिन्न नयापेक्षया दो मत हैं। एक मत के अनुसार काल एक स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। काल जीव और अजीव द्रव्य का पर्याय-प्रवाह है। इस दृष्टि से जीव
और अजीव द्रव्य का पर्याय-परिणमन ही उपचार से काल कहलाता है। इसलिए जीव और अजीव. द्रव्य को ही काल द्रव्य जानना चाहिये। द्वितीय मतानुसार जीव और पुद्गल जिस प्रकार स्वतन्त्र द्रव्य हैं, वैसे ही काल भी एक स्वतन्त्र द्रव्य है। भगवती,२१६ उत्तराध्ययन,२१७ जीवाजीवाभिगम,२१८ प्रज्ञापना,२१९ आदि में काल सम्बन्धी दोनों मान्यताओं का उल्लेख है। उसके पश्चात् आचार्य उमास्वाति ,२२० सिद्धसेन दिवाकर,२२१ जिनभद्र गणी क्षमाश्रमण,२२२ हरिभद्रसूरि,२२३ आचार्य हेमचन्द्र,२२४ उपाध्याय यशोविजय जी,२२५ विनय-विजय जी,२२६ देवचन्द्र जी,२२७ आदि श्वेताम्बर विज्ञों ने तीनों पक्षों का उल्लेख किया है किन्तु दिगम्बर आचार्य कुन्दकुन्द,२२८ पूज्यपाद,२२९ भट्टारक अकलंकदेव,२३० विद्यानन्द स्वामी२३१ आदि ने केवल द्वितीय पक्ष को ही माना है। वे काल को एक स्वतन्त्र द्रव्य मानते हैं।
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