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भगवती सूत्र : एक परिशीलन ७५ चमरेन्द्र
भगवतीसूत्र, शतक ३, उद्देशक २ में असुरराज चमरेन्द्र का उल्लेख है जो भगवान् महावीर की शरण लेकर प्रथम सौधर्म देवलोक में पहुँचा और शक्रेन्द्र ने उस पर वज्र का प्रयोग किया। यह दस आश्चर्यों में एक आश्चर्य रहा। शिवराजर्षि
भगवतीसूत्र, शतक ११, उद्देशक ९ में शिवराजर्षि का वर्णन है। वे जीवन के उषाकाल में दिशाप्रोक्षक तापस बने थे। निरन्तर षष्ठ भक्त यानी बेले का तपस्या करते थे। उनके तापस जीवन की आचारसंहिता का निरूपण प्रस्तुत आगम में विस्तार के साथ हुआ है। दिक्चक्रवाल तप से शिवराजर्षि को विभंगज्ञान हुआ जिससे वे सात द्वीप और सात समुद्रों को निहारने लगे। उन्होंने यह उद्घोषणा की कि सात समुद्र और सात द्वीप ही इस विराट् दिश्व में हैं। उसकी यह चर्चा सर्वत्र प्रसारित हो गई। गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से जिज्ञासा प्रस्तुत की। भगवान् महावीर ने कहा-असंख्यात द्वीप
और असंख्यात समुद्र हैं। जब भगवान महावीर की यह बात शिवराजर्षि ने सुनी तो विस्मित हुए। उनका अज्ञान का पर्दा हट गया। उन्होंने भगवान् महावीर के पास आर्हती दीक्षा ग्रहण कर अपने जीवन को महान् बनाया।
प्रस्तुत कथानक में सात द्वीप और सात समुद्र की मान्यता का उल्लेख हुआ है। यह मान्यता उस युग में अनेक व्यक्तियों की थी। इस मिथ्या मान्यता का निरसन भगवान महावीर ने किया और यह स्थापना की. कि असंख्यात द्वीप और असंख्यात समुद्र हैं और अन्तिम समुद्र का नाम स्वयंभूरमण समुद्र है। स्वयंभूरमण समुद्र का अन्तिम छोर अलोक के प्रारम्भ तक है।
यहाँ पर यह स्मरण रखना चाहिए कि स्कन्दक परिव्राजक, पुद्गल परिव्राजक और शिवराजर्षि ये तीनों वैदिकपरम्परा के परिव्राजक थे। उन्होंने श्रमण परम्परा को ग्रहण किया। साथ ही उस युग में जो ज्वलंत प्रश्न जनमानस में घूम रहे थे, उन प्रश्नों का सर्वज्ञ सर्वदर्शी महावीर ने स्पष्ट समाधान कर दार्शनिक जगत् को एक नई दृष्टि प्रदान की।
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