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५६ भगवती सूत्र : एक परिशीलन तीर्थंकर आध्यात्मिक वैभव की दृष्टि से विश्व के अद्वितीय पुरुष हैं। वे अनन्त बली होते हैं। आत्मा की शक्तियों का पूर्ण विकास उनके जीवन में होता है। देवेन्द्र, नरेन्द्र भी उनके चरणों में नत होते हैं। एक जैनाचार्य ने लिखा है कि एक बार गणधर गौतम ने भगवान् महावीर के समक्ष जिज्ञासा प्रस्तुत की कि एक साधक आपकी सेवा करता है और एक साधक रोगी. वृद्ध आदि श्रमणों की सेवा करता है, उन दोनों में श्रेष्ठ कौन है ? आप किसे धन्यवाद प्रदान करेंगे ? ___ भगवान् महावीर ने कहा-'जे गिलाणं पडियरइ से धन्ने' अर्थात् जो रोगी की सेवा करता है, वही वस्तुतः धन्यवाद का पात्र है। गणधर गौतम इस उत्तर को सुनकर आश्चर्यान्वित हो गये। वे सोचने लगे-कहाँ एक ओर अनन्तज्ञानी लोकोत्तम पुरुष भगवान् की सेवा और दूसरी ओर एक सामान्य श्रमण की परिचर्या ! दोनों में जमीन-आसमान की तरह अन्तर है। तथापि भगवान् अपनी भक्ति से भी बढ़कर रुग्ण श्रमण की सेवा को महत्त्व दे रहे हैं। अतः गणधर गौतम ने पुनः जिज्ञासा प्रकट की तो भगवान महावीर ने कहा-मेरे शरीर की सेवा का कोई महत्त्व नहीं है। महत्त्व है मेरी आज्ञा की आराधना करने का। “आणाराहणं खु जिणाणं"-जिनेश्वरों की आज्ञा का पालन करना ही सबसे बड़ी सेवा है।
स्थानांगसूत्र में भगवान् महावीर प्रभु ने आठ शिक्षाएँ प्रदान की हैं। उनमें से दो शिक्षायें सेवा से सम्बन्धित हैं। जो अनाश्रित हैं, असहाय हैं, जिनका कोई आधार नहीं है, उनको सहायता-सहयोग एवं आश्रय देने को सदा तत्पर रहना चाहिये तथा दूसरी शिक्षा है-रोगी की सेवा करने के लिए अग्लान भाव से सदा तत्पर रहना चाहिये।१४४
स्थानांग और भगवती में वैयावृत्य के दस प्रकार बताये हैं-१. आचार्य की सेवा, २. उपाध्याय की सेवा, ३. स्थविर की सेवा, ४. तपस्वी की सेवा, ५. रोगी की सेवा, ६. नवदीक्षित मनि की सेवा, ७. कुल की सेवा (एक आचार्य के शिष्यों का समुदाय-कुल), ८. गण की सेवा, ९. संघ की सेवा, १०. साधर्मिक की सेवा।
सेवा करते समय विवेक की भी आवश्यकता है। सेवा करने वाले को यह ध्यान में रहना चाहिये कि अवसर के अनुसार सेवा की जाए। व्यवहारभाष्य में लिखा है कि आवश्यकता होने पर भोजन देना, पानी देना, सोने के लिये बिस्तर आदि देना, गुरुजनों के वस्त्रादि का प्रतिलेखन कर
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