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भगवती सूत्र : एक परिशीलन ५५ विनय का तीसरा अर्थ नम्रता और सद्व्यवहार है । दशवैकालिक १४० में लिखा है - गुरुजनों के समक्ष शयन या आसन उनसे कुछ नीचा रखना चाहिये । नमस्कार करते समय उनके चरणों का स्पर्श कर वन्दना करे। उसके किसी भी व्यवहार में अहंकार न झलके । जब गुरुजन उसे बुलायें, उस समय आसन पर न बैठा रहे। उस समय अंजलिबद्ध होकर वन्दन की मुद्रा में पूछे - क्या आज्ञा है ? गुरुजनों की आशातना न करे ।
भगवती १४१ में विनय के सात प्रकार बताये हैं - १. ज्ञानविनय, २. दर्शनविनय, ३. चारित्रविनय, ४ मनोविनय, ५. वचनविनय, ६. कायविनय, ७. लोकोपचारविनय ।
जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य १४२ में लिखा है कि विनय कई प्रकार से लोग करते हैं। उन्होंने विनय के पाँच उद्देश्य बताये हैं
१. लोकोपचार - लोकव्यवहार के लिये माता-पिता, अध्यापक आदि का विनय करना ।
२. अर्थविनय - अर्थ के लोभ से सेठ आदि की सेवा - विनय करना ।
३. कामविनय-कामवासना की पूर्ति के लिए स्त्री आदि की प्रशंसा
करना।
४. भयविनय - अपराध होने पर न्यायाधीश, कोतवाल आदि का विनय करना।
५. मोक्षविनय-आत्मकल्याण के लिये गुरु आदि का विनय करना ।
विनय के जो चार उद्देश्य हैं, वे जब तक सीमा के अन्तर्गत हैं तब तक उचित हैं। सीमा का उल्लंघन करने पर वह विनय नहीं चापलूसी है । चापलूसी एक दोष है तो विनय एक सद्गुण है । विनय में सद्गुणों की प्राप्ति और गुणीजनों का सम्मान मुख्य होता है, जबकि चापलूसी में दूसरों को ठगने की भावना प्रमुख रूप से रहती है। चीता शिकार पर जब हमला करता है तो पहले झुकता है पर उसका झुकना विनय नहीं है। उसमें कपट की भावना रही हुई है। उसका झुकना उसके कर्मबन्धन का कारण है।
आभ्यन्तर तप का तृतीय प्रकार वैयावृत्य है। वैयावृत्य का अर्थ हैधर्मसाधना में सहयोग करने वाली आहार आदि वस्तुओं से सेवा-शुश्रूषा करना । वैयावृत्य से तीर्थंकरनाम गोत्र कर्म का उपार्जन हो सकता है । १४३
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