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भगवती सूत्र : एक परिशीलन ५१ सर्वसम्पत्करी भिक्षा ही वस्तुतः कल्याणकारी भिक्षा है। भिक्षाचरी के अनेक . भेद-प्रेभदों का उल्लेख उत्तराध्ययन,११५ स्थानांग,११६ औपपातिक१७ आदि में हुआ है। उत्तराध्ययन, पिण्डनियुक्ति आदि में भिक्षुक को अनेक दोषों से बच कर भिक्षा लेने का विधान है।११८
बाह्य तप का चतुर्थ प्रकार रसपरित्याग है। इस का अर्थ है-प्रीति बढ़ाने वाला “रसम् प्रीति विवर्धकम्"। जिसके कारण भोजन में प्रीति समुत्पन्न होती हो, वह रस है। भोजन के छह रस माने गये हैं-कटु, मधुर, आम्ल, तिक्त, काषाय एवं लवण। इन रसों के कारण भोजन स्वादिष्ट बनता है। सरस भोजन को मानव भूख से भी अधिक खा जाता है। रसयुक्त भोजन स्वादिष्ट, गरिष्ठ और पौष्टिक होता है। रस से सुपच भोजन भी दुष्पच बन जाता है। उत्तराध्ययन११९ में कहा है-रस प्रायः दीप्ति अर्थात् उत्तेजना उत्पन्न करते हैं। इसलिए उन रसों को विकति कहा है। आचार्य सिद्धसेन ने विकृति की परिभाषा करते हुए लिखा है-घी आदि पदार्थ खाने से मन में विकार पैदा होते हैं। विकार उत्पन्न होने से मानव संयम से भ्रष्ट होकर दुर्गति में जाता है। अतः इन पदार्थों का सेवन करने वाले की विकृति और विगति दोनों होती हैं। इस कारण इन्हें विगयी (विकृति और विगति) कहा है।१२० ___ पाँच इन्द्रियों में रसना इन्द्रिय पर विजय प्राप्ति बहुत ही कठिन है। भारत के तत्त्वदर्शी मनीषियों ने कहा-"सर्व जितं जिते रसे"-जिसने रसनेन्द्रिय को जीत लिया उसने संसार के सभी रसों को जीत लिया। यही कारण है, भगवती में साधक के लिए स्पष्ट निर्देश दिया है कि चाहे सरस आहार हो या नीरस, लोलुपता रहित होकर ऐसे खाए जैसे बिल में सांप घुस रहा हो।१२१ साधक को आहार का निषेध नहीं है पर स्वाद का निषेध है। आचारांग में उल्लेख है कि श्रमण को स्वादवृत्ति से बचने के लिए ग्रास को बायीं दाढ़ से दाहिनी दाढ़ की ओर भी नहीं ले जाना चाहिये। वह स्वादवृत्ति रहित होकर खाए। इससे कर्मों का हल्कापन होता है। ऐसा साधक आहार करता हुआ भी तपस्या करता है।१२२ इस प्रकार साधु आहार करता हुआ कर्मों के बन्धन को ढीले करता है। यहाँ तक कि केवलज्ञान भी प्राप्त कर सकता है। यदि आसक्त होकर आहार करता है तो कर्मबन्धन कर लेता है। अतः रसपरित्याग को तप माना है।
बाह्य तप का पाँचवाँ प्रकार कायक्लेश है। कायक्लेश का अर्थ शरीर को कष्ट देना है। कष्ट, एक स्वकृत होता है और दूसरा परकृत होता है। कितने
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