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५० भगवती सूत्र : एक परिशीलन
कठिनतर है। अनशन तप स्वस्थ व्यक्ति कर सकता है पर ऊनोदरी तप रोगी और दुर्बल व्यक्ति भी कर सकता है। ऊनोदरी तप से अनेक प्रकार के रोग भी मिट जाते हैं। ऊनोदरी तप के दो भेद बताये हैं - १. द्रव्य ऊनोदरी और २. भाव ऊनोदरी । उत्तराध्ययन में ऊनोदरी के पाँच प्रकार भी बताये हैं। वे इस प्रकार हैं
१. द्रव्य ऊनोदरी - आहार की मात्रा से कम खाना और आवश्यकता से कम वस्त्रादि रखना ।
२. क्षेत्र ऊनोदरी - भिक्षा के लिए किसी स्थान आदि को निश्चित कर वहाँ से भिक्षा ग्रहण करना ।
३. काल ऊनोदरी - भिक्षा के लिए काल यानी समय निश्चित कर कि अमुक समय भिक्षा मिलेगी तो ग्रहण करूँगा, नहीं तो नहीं।
४. भाव ऊनोदरी - भिक्षा के समय अभिग्रह आदि धारण करना। ५. पर्याय ऊनोदरी - इन चारों भेदों को क्रिया रूप में परिणत करते
रहना ।
द्रव्य ऊनोदरी के अन्य अनेक अवान्तर भेद हैं। द्रव्य ऊनोदरी से साधक का जीवन बाहर से हल्का, स्वस्थ और प्रसन्न रहता है। भाव ऊनोदरी में साधक क्रोध, मान, माया, लोभ आदि कषायों को कम करता है। वह कम बोलता है, कलह आदि से बचता है। भाव ऊनोदरी से अन्तरंग जीवन में प्रसन्नता पैदा होती है और सद्गुणों का विकास होता है ।
बाह्य तप का तृतीय प्रकार भिक्षाचरी है। विविध प्रकार के अभिग्रह को ग्रहण कर भिक्षा की अन्वेषणा करना भिक्षाचरी है। भिक्षा का सामान्य अर्थ मांगना है पर सिर्फ मांगना ही तप नहीं है। आचार्य हरिभद्र १४ ने भिक्षा के तीन प्रकार बताये हैं- दीनवृत्ति, पौरुषघ्नी और सर्वसम्पत्करी । जो अनाथ, अपंग या आपद्ग्रस्त दरिद्र व्यक्ति मांग कर खाते हैं उनकी दीनवृत्ति भिक्षा है । जो श्रम करने में समर्थ होकर भी काम से जी चुराकर कमाने की शक्ति होने पर भी मांग कर खाते हैं, उनकी पौरुषघ्नी भिक्षा है | वह भिक्षा पुरुषार्थ का नाश करती है। जो त्यागी, अहिंसक श्रमण अपने उदरनिर्वाह के लिए माधुकरी वृत्ति से गृहस्थ के घर में सहज भाव से निर्मित निर्दोष विधि से भिक्षा ग्रहण करते हैं, वह भिक्षा सर्वसम्पत्करी है। इस प्रकार की भिक्षा देने वाला और ग्रहण करने वाला, दोनों ही सद्गति को प्राप्त होते हैं ।
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