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________________ भगवती सूत्र : एक परिशीलन ४९ देहदण्ड ही नहीं अपितु आध्यात्मिक गुणों की उपलब्धि का महान् उद्देश्य भी उसमें सन्निहित है। भगवद्गीता१११ में भी लिखा है कि आहार का परित्याग करने से इन्द्रियों के विषय-विकार दूर हो जाते हैं और मन भी पवित्र हो जाता है। महर्षि ने मैत्रायणी आरण्यक में लिखा है कि अनशन से बड़ा कोई तप नहीं है। साधारण मानव के लिए यह तप बड़ा ही दुर्धर्ष है। उसे सहन और वहन करना कठिन ही नहीं, कठिनतर है।११२ अनशन तप के भी दो प्रकार हैं। एक इत्वरिक और दूसरा यावत्कालिक। इत्वरिक तप में एक निश्चित समयावधि होती है। एक दिन से लगाकर छह मास तक का यह तप होता है। दूसरा प्रकार यावत्कालिक तप जीवन पर्यन्त के लिए किया जाता है। यावत्कालिक अनशन के पादपोपगमन और भक्तप्रत्याख्यान-ये दो भेद हैं। भक्तप्रत्याख्यान में आहार के परित्याग के साथ ही निरन्तर स्वाध्याय, ध्यान, आत्मचिन्तन में समय व्यतीत किया जाता है। पादपोपगमन में टूटे हुए वृक्ष की टहनी की भाँति अचंचल, चेष्टारहित एक ही स्थान पर जिस मुद्रा में प्रारम्भ में स्थिर हुआ, अन्तिम क्षण तक उसी मुद्रा में अवस्थित रहना होता है। यदि नेत्र खुले हैं तो बन्द नहीं करना। यदि बन्द हैं तो खोलना नहीं है। जिसका वज्र ऋषभनाराच संहनन हो, वही पादपोपगमन संथारा कर सकता है। चौदह पूर्वो का जब विच्छेद होता है तभी पादपोपगमन अनशन का भी विच्छेद हो जाता है।११३ पादपोपगमन के निरहारिम और अनिरहारिम ये दो प्रकार हैं। बाह्य तप का दूसरा प्रकार ऊनोदरी है। ऊनोदरी का शब्दार्थ है-ऊनकम एवं उदर-पेट अर्थात् भूख से कम खाना ऊनोदरी है। कहीं-कहीं पर ऊनोदरी को अवमौदर्य भी कहा गया है। इसे अल्प आहार या परिमित आहार भी कह सकते हैं। आहार के समान कषाय, उपकरण आदि की भी ऊनोदरी की जाती है। यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि उपवास करना तो तप है क्योंकि उसमें पूर्ण रूप से आहार का त्याग होता है, पर ऊनोदरी तप में तो भोजन किया जाता है फिर इसे तप किस प्रकार कहा जाये ? समाधान है-भोजन का पूर्ण रूप से त्याग करना तो तप होता ही है पर भोजन के लिए प्रस्तुत होकर भूख से कम खाना, भोजन करते हुए रसना पर संयम करना, सुस्वादु भोजन को बीच में ही छोड़ देना भी अत्यन्त दुष्कर है। आत्मसंयम और दृढ़ मनोबल के बिना यह तप सम्भव नहीं है। निराहार रहने की अपेक्षा आहार करते हुए पेट को खाली रखना कठिन और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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