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________________ तप : एक विश्लेषण PAHATMAT H AARAATMAHARHAARAAHARHARE ::::::::::::::::::::: तप भारतीय साधना का प्राणतत्त्व है। जैसे शरीर में ऊष्मा जीवन के अस्तित्व का द्योतक है वैसे ही साधना में तप उसके दिव्य अस्तित्व को अभिव्यक्त करता है। तप के बिना न निग्रह होता है, न अभिग्रह होता है। तप दमन नहीं, शमन है। तप केवल आहार का ही त्याग नहीं, वासना का भी त्याग है, तप अन्तर्मानस में पनपते हुए विकारों को जला कर भस्म कर देता है और साथ ही अन्तर्मानस में रहे हुए सघन अन्धकार को भी नष्ट कर देता है। इसलिये तप ज्वाला भी है और ज्योति भी है। तप जीवन को सौम्य, सात्त्विक और सर्वांगपूर्ण बनाता है। तप की साधना से आध्यात्मिक परिपूर्णता प्राप्त होती है। तप ऐसा कल्पवृक्ष है जिसकी निर्मल छत्रछाया में साधना के अमृतफल प्राप्त होते हैं। तप से जीवन ओजस्वी, तेजस्वी और प्रभावशाली बनता है। तप के सम्बन्ध में भगवतीसूत्र शतक २५, उद्देशक ७ में निरूपण है। वहाँ पर तप के दो मुख्य प्रकार बताये हैं-१. बाह्य तप और २. आभ्यन्तर तप। बाह्य तप के छह प्रकार बताये हैं और आभ्यन्तर तप के भी छह प्रकार हैं। जो तप बाहर दिखलाई दे, वह बाह्य तप है। बाह्य तप में देह या इन्द्रियों का निग्रह किया जाता है। बाह्य तप में बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा रहती है जबकि आभ्यन्तर तप में अन्तःकरण के व्यापारों की प्रधानता होती है। यह जो वर्गीकरण है वह तप की प्रक्रिया और स्थिति को समझाने के लिए किया गया है। तप का प्रारम्भ होता है बाह्य तप से और उसकी पूर्णता होती है आभ्यन्तर तप से। तप का एक छोर बाह्य है और दूसरा छोर आभ्यन्तर है। आभ्यन्तर तप के बिना बाह्य तप में पूर्णता नहीं आती। बाह्य तप से जब साधक का अन्तर्मन और तन उत्तप्त हो जाता है तो अन्तर में रही हुई मलिनता को नष्ट करने के लिए साधक प्रस्तुत होता है। और वह अन्तर्मुखी बनकर आभ्यन्तर साधना में लीन हो जाता है। बाह्य तप के प्रकार निम्नानुसार हैं १. अनशन-बाह्य तप में इसका प्रथम स्थान है। यह तप अधिक कठोर और दुर्धर्ष है। भूख पर विजय प्राप्त करना अनशन तप का मूल उद्देश्य है। अनशन तप में भूख को जीतना और मन का निग्रह करना आवश्यक है। अनशन से तन की ही नहीं, मन की भी शुद्धि होती है। अनशन केवल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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