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________________ ४६ भगवती सूत्र : एक परिशीलन १०. उस दोष की आलोचना की जाय जिस दोष का सेवन उस आचार्य ने कर रखा हो-ये दस आलोचना के दोष हैं। आलोचना करने वाले के दस गुण भी बताए गये हैं तथा जिस आचार्य या गुरु के सामने आलोचना करनी हो उनके आठ गुण भी आगम में प्रतिपादित हैं। वर्तमान युग में आलोचना शब्द अन्य अर्थ में व्यवहृत हैकिसी की नुक्ता-चीनी करना, टीका-टिप्पणी करना या किसी के गुण-दोष की चर्चा करना। पर प्रस्तुत आगम में जो शब्द आया है, वह दूसरों के गुण-दोषों के सम्बन्ध में नहीं है पर आत्मनिन्दा के अर्थ में है। आत्मनिन्दा करना सरल नहीं, कठिन और कठिनतर है। परनिन्दा करना, दूसरे के दोषों को निहारना सरल है। आत्म-आलोचना वही व्यक्ति कर सकता है जिसमें सरलता हो, किसी भी प्रकार का छिपाव न हो, जिसका जीवन खुली पुस्तक की तरह हो। व्यक्ति पाप करके भी यह सोचता है कि मैं पाप को स्वीकार करूँगा तो मेरी कीर्ति, मेरा यश, मेरी प्रतिष्ठा धूमिल हो जायेगी। वह पाप करके भी पाप को छिपाना चाहता है। जिसे स्वास्थ्य की चिन्ता है, वह पहले से ही सावधान रहता है। यदि रोग हो गया है, उसके बाद यह सोचे कि मैं डॉक्टर के पास जाऊँगा और लोगों को यह पता चल जायेगा कि मैं रोगी हूँ। इस प्रकार विचार कर वह अपना रोग छिपाता है तो वह व्यक्ति स्वस्थ नहीं हो सकता। इसी प्रकार जीवन में पवित्रता तभी रहेगी जब दोष को प्रकट कर उसका यथोचित प्रायश्चित्त किया जाय। आलोचना करने से साधक माया, निदान और मिथ्यादर्शन रूप तीन शल्यों को अन्तर्मानस से निकाल दूर कर देता है। कांटा निकलने से हृदय में सुखानुभूति होती है, वैसे ही पाप को प्रकट करने से भी जीवन निःशल्य बन जाता है। जो साधक पाप करके भी आलोचना नहीं करता है, उसकी सारी आध्यात्मिक क्रियाएँ बेकार हो जाती हैं। कोई साधक यह सोचे कि मुझे तो सभी शास्त्रों का परिज्ञान है अतः मुझे किसी के पास जाकर आलोचना करने की क्या आवश्यकता है? पर यह सोचना ठीक नहीं है। जिस प्रकार निपुण वैद्य भी अपनी चिकित्सा दूसरों से करवाता है, दूसरे वैद्य के कथनानुसार कार्य करता है, वैसे ही आचार्य को भी यदि दोष लग जाता है तो दोष की विशुद्धि दूसरों की साक्षी से ही करनी चाहिये। इस प्रकार करने से हृदय की सरलता प्रकट होती है और दूसरों को भी सरल और विशुद्ध बनाया जा सकता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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