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________________ भगवती सूत्र : एक परिशीलन ४५ प्रायश्चित्त : एक चिन्तन साधक प्रतिपल-प्रतिक्षण जागरूक रहता है किन्तु जागरूक रहने पर भी और न चाहते हुए भी कभी-कभी प्रमाद आदि के कारण स्खलनाएँ हो जाती हैं। दोष लगना उतना बुरा नहीं है, जितना बुरा है दोष को दोष न समझना और उसकी शुद्धि के लिए प्रस्तुत न होना। जो दोष लग जाते हैं, उन दोषों की शुद्धि के लिये प्रायश्चित्त का विधान है। प्रायश्चित्त में सर्वप्रथम ' आलोचना है। जो भी स्खलना हो, उस स्खलना को बालक की तरह गुरु के समक्ष सरलता के साथ प्रस्तुत कर देना आलोचना है। भगवतीसूत्र शतक २५, उद्देशक ७ में इस सम्बन्ध में विस्तार. से निरूपण किया गया है, सर्वप्रथम गणधर गौतम ने पूछा कि भगवन् ! किन कारणों से साधना में स्खलनाएँ होती हैं ? ___ भगवान् महावीर ने समाधान देते हुए कहा कि दस कारणों से साधना में स्खलनाएँ होती हैं। वे इस प्रकार हैं-१. दर्प (अहंकार से) २. प्रमाद से ३. अनाभोग (अज्ञान से) ४. आतुरता ५. आपत्ति से ६. संकीर्णता ७. सहसाकार (आकस्मिक क्रिया से) ८. भय से ९. प्रद्वेष (क्रोध आदि कषाय से) १०. विमर्श (शैक्षिक आदि की परीक्षा करने से)। इन दस कारणों से स्खलना होती है। स्खलना होने पर उन स्खलनाओं के परिष्कार के लिए साधक गुरु के समक्ष पहुँचता है पर दोष को प्रकट करते समय उन दोषों को इस प्रकार प्रकट करना जिससे गुरुजन मुझे कम प्रायश्चित्त दें, यह दोष है। आलोचना के दस दोष प्रस्तुत आगम में हैं तथा अन्य स्थलों पर भी उन दस दोषों का निरूपण हुआ है। वे दोष इस प्रकार हैं-१. गुरु को यदि मैंने प्रसन्न कर लिया तो वे मुझे कम प्रायश्चित्त देंगे अतः उनकी सेवा कर उनके अन्तर्मानस को प्रसन्न कर फिर आलोचना करना। २. बहुत अल्प अपराध को बताना जिससे कि कम प्रायश्चित्त मिले। ३. जो अपराध आचार्य आदि ने देखा हो उसी की आलोचना करना। ४. केवल बड़े अतिचारों की ही आलोचना करना। ५. केवल सूक्ष्म दोषों की ही आलोचना करना जिससे कि आचार्य को यह आत्मविश्वास हो जाये कि यह इतनी सूक्ष्म बातों की आलोचना कर रहा है तो स्थूल दोषों की तो की ही होगी। ६. इस प्रकार आलोचना करना जिससे कि आचार्य सुन न सके। ७. दूसरों को सुनाने के लिये जोर-जोर से आलोचना करना। ८. एक ही दोष की पुनः-पुनः आलोचना करना। ९. जिनके सामने आलोचना की जाय वह अगीतार्थ हों। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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