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४४ भगवती सूत्र : एक परिशीलन
रहती है। लब्धिप्रयोग करने वाले के अन्तर्मानस में कभी यह विचार पनपता है कि जनमानस पर मेरा प्रभाव गिरे। कभी-कभी वह क्रोध के कारण दूसरे व्यक्ति का अनिष्ट करने के लिए लब्धि का प्रयोग करता है, इसलिये उसमें प्रमाद रहा हुआ है। जैनसाधना में चमत्कार को नहीं, सदाचार को महत्त्व दिया है। जिस प्रकार भगवान् महावीर ने लब्धिप्रयोग का निषेध किया वैसे ही तथागत बुद्ध ने भी चमत्कारप्रदर्शन को ठीक नहीं माना। संयुक्तनिकाय में भिक्षु मौद्गल्यायन का वर्णन है जो लब्धिधारी और ऋद्धिबल सम्पन्न था१०६ । समय-समय पर वह चमत्कारप्रदर्शन भी करता था। अतः बुद्ध समय-समय पर चमत्कारप्रदर्शन का निषेध करते रहे।
प्रत्याख्यान : एक चिन्तन
इच्छाओं के निरोध के लिए प्रत्याख्यान आवश्यक है। प्रत्याख्यान का अर्थ है प्रवृत्ति को मर्यादित और सीमित करना ।१०७ आचार्य अभयदेव ने स्थानांगवृत्ति में लिखा है कि अप्रमत्त भाव को जगाने के लिए जो मर्यादापूर्वक संकल्प किया जाता है, वह प्रत्याख्यान है । १०८ साधक आत्मशुद्धि हेतु यथाशक्ति प्रतिदिन कुछ न कुछ त्याग करता है। त्याग करने से उसके जीवन में अनासक्ति की भव्य भावना अंगड़ाइयाँ लेने लगती है और तृष्णा मंद से मंदतर होती चली जाती है। प्रत्याख्यान के भी दो प्रकार हैं - १. द्रव्यप्रत्याख्यान और २. भावप्रत्याख्यान । द्रव्यप्रत्याख्यान में आहार, वस्त्र प्रभृति पदार्थों को छोड़ना होता है और भावप्रत्याख्यान में राग-द्वेष, कषाय प्रभृति अशुभ वृत्तियों का परित्याग करना होता है।
आवश्यकनिर्युक्ति १०९ में आचार्य भद्रबाहु ने लिखा है - प्रत्याख्यान से आस्रव का निरुन्धन होता है और आनव-निरुन्धन से तृष्णा का क्षय होता है। जैन दृष्टि से असद् आचरण नहीं करने वाला व्यक्ति भी जब तक प्रतिज्ञा नहीं लेता है तब तक वह उस असदाचरण से मुक्त नहीं हो पाता । परिस्थितिवश वह असदाचरण नहीं करता पर असदाचरण न करने की प्रतिज्ञा के अभाव में वह परिस्थितिवश असदाचरण कर सकता है। जब तक प्रतिज्ञा नहीं करता तब तक वह असदाचरण के दोष से मुक्त नहीं हो सकता। प्रत्याख्यान में असदाचरण से निवृत्त होने के लिए दृढ़ संकल्प की आवश्यकता है।
भगवतीसूत्र शतक ७, उद्देशक २ में प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में विस्तार से चर्चा की गई है।
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