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भगवती सूत्र : एक परिशीलन ४३ साधना करने पर प्राप्त होती है और इस लब्धि की शक्ति से तीन बार चुटकी बजाये इतने समय में इक्कीस बार जम्बूद्वीप की प्रदक्षिणा कर लेता है।
इस द्रुत गति के सामने आधुनिक युग के राकेट की गति भी कितनी कम है! .
इसी तरह अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान के द्वारा अन्तर्मानस में रहे हुए विचारों को साधक किस प्रकार जानता है? शतक ३, उद्देशक ४ तथा शतक १४, उद्देशक १०, शतक ५, उद्देशक ४ आदि में इस विषय का विस्तार से निरूपण है। आध्यात्मिक शक्ति जब जाग जाती है तब हस्तामलकवत् चाहे रूपी पदार्थ हो या अरूपी पदार्थ हो, उसे वह सहज ही जान लेता है। उससे कोई भी वस्तु छिपी नहीं रह पाती। __ भगवतीसूत्र शतक १५ में तेजोलब्धि का भी निरूपण है। तेजोलब्धि वह लब्धि है, जिससे साढ़े सोलह देश भस्म किये जा सकते थे। वह शक्ति आधुनिक उदजन बम की तरह थी। भौतिक शक्ति की अपेक्षा आध्यात्मिक शक्ति अधिक प्रबल होती है, यह प्रस्तुत प्रसंगों से स्पष्ट है। जैन परम्परा की तरह बौद्ध और वैदिक परम्परा में भी तपोजन्य लब्धियों का उल्लेख हुआ
__ योगदर्शन में आचार्य पतञ्जलि ने योग का प्रभाव प्रतिपादित करते हुए लिखा है कि योगी को अणिमा, महिमा, लघिमा प्रभृति आठ महाविभूतियाँ प्राप्त होती हैं। इससे योगी अणु को विराट् और विराट को अणु बना सकता है। जिसे जैन परम्परा में लब्धि कहा है उसे ही योगदर्शन में विभूतियाँ कहा है। आगमकार ने यह सचित किया है कि लब्धि होना अलग चीज है और उसका प्रयोग करना अलग चीज है। लब्धि सहज होती है पर लब्धि का प्रयोग प्रमत्त दशा में ही होता है। छठे गुणस्थान तक ही साधक लब्धि का प्रयोग करता है। अप्रमत्त साधक लब्धि का प्रयोग नहीं करता है। लब्धिप्रयोग प्रमत्त भाव है। प्रमाद कर्मबन्धन का कारण है। इसीलिए भगवती के बीसवें शतक, नौवें उद्देशक में स्पष्ट कहा है-जो साधक लब्धि का प्रयोग कर प्रमादसेवना कर पुनः उसकी आलोचना नहीं करता है; अनालोचना की दशा में ही काल प्राप्त कर जाता है तो वह धर्म की आराधना से च्युत हो जाता है। “नत्थि तस्स आराहणा" अर्थात् वह विराधक हो जाता है।
यहाँ यह सहज जिज्ञासा हो सकती है कि लब्धिप्रयोग प्रमाद क्यों है? उत्तर है कि उसमें उत्सुकता, कुतूहल, प्रदर्शन, यश और प्रतिष्ठा की भावना
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