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________________ ३४ भगवती सूत्र : एक परिशीलन पर क्रिया के पाँच प्रकार बताये और उन क्रियाओं से बचने का सन्देश भगवान महावीर ने दिया। भगवान महावीर ने स्पष्ट कहा कि सक्रिय जीव की मुक्ति नहीं है। मुक्ति प्राप्त करने वाले साधक को निष्क्रिय बनना होगा। जब तक शरीर है तब तक कर्मबन्धन है। अतः सूक्ष्म शरीर से छूट जाना निष्क्रिय बनना है। भगवतीसूत्र शतक सातवें, उद्देशक प्रथम में यह स्पष्ट कहा है कि जिन व्यक्तियों में कषाय की प्रधानता है, उनको साम्परायिक क्रिया लगती है और जिनमें कषाय का अभाव है उनको ईर्यापथिक क्रिया लगती है। एक बार भगवान् महावीर गुणशीलक उद्यान में अपने स्थविर शिष्यों के साथ अवस्थित थे। उस उद्यान के सन्निकट ही कुछ अन्य तीर्थिक रहे हुए थे। उन्होंने उन स्थविरों से कहा कि तुम असंयमी हो, अविरत हो, पापी हो और बाल हो, क्योंकि तुम इधर-उधर परिभ्रमण करते रहते हो, जिससे पृथ्वीकाय के जीवों की विराधना होती है। उन स्थविरों ने उनको समझाते हुए कहा कि हम बिना प्रयोजन इधर-उधर नहीं घूमते हैं और यतनापूर्वक चलने के कारण हिंसा नहीं करते, इसीलिये हमारी हलन-चलन आदि क्रिया कर्मबन्धन का कारण नहीं है। पर आप लोग बिना उपयोग के चलते हैं अतः वह कर्मबन्धन का कारण है और असंयम वृद्धि का भी कारण है।९० - शतक अठारहवें, उद्देशक आठवें में एक मधुर प्रसंग है- गणधर गौतम ने भगवान् महावीर से जिज्ञासा प्रस्तुत की कि एक संयमी श्रमण अच्छी तरह से ३१हाथ जमीन देख कर चल रहा है। उस समय एक क्षुद्र प्राणी अचानक पाँव के नीचे आ जाता है और उस श्रमण के पैर से मर जाता है। उस श्रमण को ईर्यापथिक क्रिया लगती है या साम्परायिक क्रिया? ___ भगवान् ने समाधान दिया कि उसको ईर्यापथिक क्रिया ही लगती है, साम्परायिक क्रिया नहीं; क्योंकि उसमें कषाय का अभाव है। इस प्रकार बन्ध और कर्मबन्ध होने की कारण चेष्टा रूप जो क्रिया है, उस सम्बन्ध में अनेक प्रश्नों के द्वारा मूल आगम में प्रकाश डाला गया है, जो ज्ञानवर्द्धक और विवेक को उबुद्ध करने वाला है। निर्जरा भारतीय चिन्तन में जहाँ बन्ध के सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है, वहाँ आत्मा से कर्मवर्गणाओं को पृथक् करने के सम्बन्ध में भी चिन्तन है। जैन पारिभाषिक शब्दावली में आत्मा से कर्मवर्गणाओं का पृथक् हो जाना या उन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003173
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Ek Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevendramuni
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year
Total Pages272
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, & Canon
File Size11 MB
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