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. भगवती सूत्र : एक परिशीलन ३५ कर्मपुद्गलों को पृथक् कर देना निर्जरा है। निर्जरा शब्द का अर्थ है-जर्जरित कर देना, झाड़ देना। निर्जरा के दो प्रकार हैं-१. भावनिर्जरा और २. द्रव्यनिर्जरा। आत्मा की वह विशुद्ध अवस्था जिसके कारण कर्मपरमाणु आत्मा से पृथक् हो जाते हैं, वह भावनिर्जरा है। यही कर्मपरमाणुओं का आत्मा से पृथक्करण द्रव्यनिर्जरा है। भावनिर्जरा कारणरूप है और द्रव्यनिर्जरा कार्यरूप है। उत्तराध्ययन सूत्र में इसी तथ्य को रूपक की भाषा में इस प्रकार प्रस्तुत किया है-आत्मा सरोवर है. कर्म पानी है। कर्म का आस्रव पानी का आगमन है। उस पानी के आगमन के द्वारों को अवरुद्ध कर देना संवर है और पानी को उलीचना और सुखाना निर्जरा है। __प्रकारान्तर से निर्जरा के सकामनिर्जरा और अकामनिर्जरा, ये दो प्रकार हैं। जिसमें कर्म जितनी कालमर्यादा के साथ बंधा हुआ है, उसके समाप्त हो जाने पर अपना विपाक यानी फल देकर आत्मा से पृथक् हो जाता है, वह अकामनिर्जरा है। इस अकामनिर्जरा को यथाकाल निर्जरा, सविपाक निर्जरा और अनौपक्रमिक निर्जरा भी कहते हैं। विपाक-अवधि के आने पर कर्म अपना फल देकर स्वाभाविक रूप से पृथक् हो जाते हैं, इसमें कर्म को पृथक करने के लिये प्रयास की आवश्यकता नहीं होती। इस निर्जरा का महत्त्व साधना की दृष्टि से नहीं है। क्योंकि कर्मों का बन्ध और इस निर्जरा का क्रम प्रतिपल-प्रतिक्षण चलता रहता है। जब तक नूतन कर्मों का बन्धन अवरुद्ध नहीं होता तबे तक सापेक्ष रूप से इस निर्जरा से लाभ नहीं होता। जिस प्रकार एक व्यक्ति पुराने ऋण को चुकाता तो रहता है पर नवीन ऋण भी ग्रहण करता रहता है तो वह व्यक्ति ऋण से मुक्त नहीं होता। अकामनिर्जरा अनादि काल से करने के बावजूद भी आत्मा मुक्त नहीं हो सका। भवपरम्परा को समाप्त करने के लिये सकामनिर्जरा की आवश्यकता है।
सकामनिर्जरा वह है, जिसमें तप आदि की साधना के द्वारा कर्मों की कालस्थिति परिपक्व होने के पहले ही प्रदेशोदय के द्वारा उन्हें भोगकर बलात् पृथक् कर दिया जाता है। इसमें विपाकोदय या फलोदय नहीं होता। केवल प्रदेशोदय ही होता है। विपाकोदय और प्रदेशोदय के अन्तर को समझाने के लिये डॉ. सागरमल जैन ने एक उदाहरण दिया है-"जब क्लोरोफार्म सुंघाकर किसी व्यक्ति की चीर-फाड़ की जाती है तो उसमें उसे असातावेदनीय (दुखानुभूति) नामक कर्म का प्रदेशोदय होता है, लेकिन विपाकोदय नहीं होता है। उसमें दुःखद वेदना के तथ्य तो उपस्थित होते हैं,
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